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नारद ने ब्रह्मा से पूछा-शिवजी का जो चरित अब तक सुनाया उसके बाद मन में एक प्रश्न आया है. शिवजी गृहस्थी से एक बार विरक्त होने के बाद पुनः गृहस्थ बनने को कैसे माने? एक ही शरीर से भगवती उमा दक्षपुत्री और हिमालय पुत्री कैसे बनीं?

ब्रह्माजी बोले- पूर्वकाल में संध्या नामक मानसपुत्री पर मैं मोहित हो गया था. शिवजी ने आकर मर्यादा रक्षा की और मेरी बहुत निंदा की. मैं तो शिवजी की माया से मोहित था. मुझे तो कुछ समझ में ही नहीं आ रहा था.

संध्या को भी मेरा यह आचरण सहन नहीं हुआ. अपने पिता को मोहित करने वाले अत्यंत सुंदर शरीर से उसे घृणा हुई और उसने योगाग्नि में जलाने का प्रयास किया. शिवजी उसकी मनोस्थिति को समझ गए.

उन्होंने संध्या को तप द्वारा आत्मशुद्धि का विचार जागृत करने को कहा. साध्वी संध्या चंद्रभागा नदी के उदगम स्थल चंद्रभाग पर्वत पर जाकर कठिन तप करने लगी. मैंने वशिष्ठ को आदेश दिया कि वह जाकर तप में लीन संध्या का वरण करें.

वास्तव में संध्या के मन की पीड़ा एक और थी. उसे अपने रचयिता ब्रह्मा नारीदेह रचना में एक त्रुटि को लेकर दुख था. संध्या क्षुब्ध थी कि उसके जन्म लेने के बाद स्वयं उसके मन में भी कामसुख भोगने की इच्छा व्याकुल करने लगी थी.

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