महात्मा बुद्ध एक जंगल से गुजर रह थे. उनको एक व्यक्ति दिखा जो लगातार कई वर्षों से एक पैर पर खड़ा होकर तपस्या कर रहा था. तप के कारण उसका शरीर कड़ा हो गया था. त्वचा की संवेदना नष्ट हो गई थी.
बुद्ध ने पूछा- आप किस कारण अपने शरीर को ऐसा कष्ट दे रहे हैं. तपस्वी ने कहा- मैंने पिछले जन्म में कई पाप किए होंगे, उसका नाश कर रहा हूं. भविष्य में कोई पाप न हो सभी कष्टों का अंत हो जाए इसके लिए तप कर रहा हूं.
बुद्ध ने पूछा- आपने पिछले जन्म में क्या पाप किए थे? व्यक्ति ने कहा- वह मुझे कैसे पता होगा. मैं पूर्वजन्म की बातें कैसे याद रख सकता हूं! बुद्ध ने पूछा- इस जन्म के पापों का हिसाब तो रखा होगा, वही बता दो.
तपस्वी बोला- नहीं इस जन्म के पापों को भी ठीक-ठीक नहीं बता पाउंगा. फिर बुद्ध ने पूछा- अच्छा इस घोर तप से कितने पाप कटे होंगे, इसका कोई अंदाजा तो लगाया होगा, वही बता दो.
साधक चिढ़ गया- जब मुझे पापों की संख्या ही नहीं पता तो कितने कटे, कितने बचे यह कैसे बताउं. कैसा बेतुका प्रश्न है? बुद्ध बोले- जो काम कर रहे हो, उसका परिणाम नहीं जानते, क्यों कर रहे हो यह भी नहीं जानते. तो फिर बेतुके काम तो तुम कर रहे हैं.
मैं मगध के राजा बिंबिसार से ज्यादा सुखी हूं क्योंकि आत्मचिंतन करके अपने कर्मों का हिसाब रखता हूं. प्रयास करता हूं कि किसी का कोई अहित न हो. आप शरीर को कष्ट देने के स्थान पर एकांत में आत्मचिंतन करें, सारे हल निकल आएंगे.
बुद्ध ने आगे कहा- इस जन्म में जो कर्म आपको करने थे, उनसे मुंह मोड़ रखा है. पिछले जन्म के पाप कटे या नहीं यह तो नहीं कहा जा सकता पर यह तो तय है कि इस जन्म में कर्तव्यों से मुंह मोडकर आप पाप कर रहे हैं.
साधना का अर्थ केवल शारीरिक कष्ट नहीं होना चाहिए. साधना तो वास्तव में आत्मचिंतन है. इसके लिए बाहरी नियंत्रण से जरूरी है, आंतरिक परिवर्तन. इसी में आत्मशांति मिलती है.
संकलन व संपादनः राजन प्रकाश