एक बार शौनक ऋषि ने सूतजी से पूछा- श्रीदुर्गासप्तशती के मध्यम चरित्र पाठ और लक्षचंडी पाठ का क्या प्रभाव? सूतजी बोले– यह उत्तम फलदायी है. आपको इसके प्रभाव की एक कथा सुनाता हूं.

उज्जयिनी में भीमवर्मा नाम का एक क्षत्रिय रहता था. भीमवर्मा का भोजन अन्न और फल, दूध न होकर मांस, मछली थे. मुख्य पेय जल न होकर मदिरा थी. क्रूरता उसके स्वभाव में थी. वह जन और जानवरों के साथ हिंसक व्यवहार करता था.

सभी बुराइयों में लिप्त रहने धर्मविरूद्ध आचरण के चलते शीघ्र ही उसका शरीर भयंकर व्याधियों, बीमारियों से ग्रस्त हो गया. बीमारियों के कारण युवावस्था में ही उसकी मृत्यु हो गयी.

भीमवर्मा था तो पापकर्मी किंतु उसने कभी चंडीपाठ भी करवाया था. उसके पुण्य प्रभाव ने ऐसे पापी को भी नरक से बचा लिया. उसे नरक तो नहीं ही मिली बल्कि कर्मों का सामान्य दंड भुगतने के बाद अगले जन्म में मगध का राजा महानंद हुआ.

राजनीति परायण महानंद को अपना पूर्वजन्म पूरी तरह याद था. उसे पापों से मुक्ति दिलाने वाले योग्य गुरू की खोज थी और दैवयोग से उसे कात्यायन वररुचि जैसे महान गुरू प्राप्त हो गए.

महानंद समझता था कि पूर्वजन्म में कराए चंडीपाठ के पुण्य प्रताप से ही उसके सभी अधर्माचरण क्षमा हो गए हों ऐसा नहीं हैं बस उसे चंडी की कृपा से नर्क से मुक्ति मिल गई. वह इस जन्म में भरपूर धर्माचरण करना चाहता था.

पर राजा के लिए पूर्णतः: धर्माचरण करना कठिन है. इससे उसे भय हुआ. अत: उसने कात्यायन से अपने पूर्वजन्म के संचित कुकर्मों और इस जन्म के पापों से छुटकारा दिलाने का रास्ता पूछा.

कात्यायन ने महानंद को कोई विशेष रास्ता तो नहीं बताया पर देवी महालक्ष्मी के बीजमंत्र सहित उनके मध्यम चरित्र का उपदेश राजा महानंद को दिया. उपदेश देने के बाद कात्यायन स्वयं विंध्य पर्वत पर शक्ति-उपासना के लिए चले गए.

इधर राजा महानंद, कात्यायन की अनुपस्थिति में प्रतिदिन नियमत: महालक्ष्मी की कस्तूरी, चंदन आदि से पूरे मन से पूजा करने लगे. वे हर दिन श्रीदुर्गासप्तशती के मध्यम चरित्र का पाठ करने लगे.

इस बीच महानंद का कई बार राजनीतिक संकटों, विद्रोहों और युद्धों से सामना पड़ा पर अपने कौशल और भगवती की कृपा से वह सबसे निबटने में सफल रहे.

बारह वर्ष की साधना पूरी करने के बाद कात्यायन विंध्य पर्वत से लौटे. उनके पास अब और भी सिद्धियां थीं. उन्होंने महानंद से अपनी अनुपस्थिति में किए जाने वाले श्री दुर्गासप्तशती के मध्यम चरित्र के पाठ के बारे में पूछा.

महानंद ने अपने द्वारा किए जाने वाले श्रीदुर्गासप्तशती के मध्यम चरित्र के नियमित पाठ का जो विवरण दिया उससे कात्यायन प्रसन्न हुए और कहा कि इस पाठ से तुम्हारे पूर्वजन्म के धर्माचरण नष्ट हो चुके हैं.

कात्यायन बोले- महाराज मैं इस जन्म के अधर्माचरण और पापों के नाश के लिए एक उचित तथा निश्चित विधान करवाता हूं. इसके बाद कात्यायन ने विधिपूर्वक लक्षचण्डी पाठ करवाया.

फलस्वरूप भगवती महालक्ष्मी प्रकट हुई और राजा को धर्म, अर्थ, काम सहित मोक्ष भी दे दिया. महाभाग महानंद ने देवों के समान अभीष्ट फलों का उपभोग कर अंत में परम लोक को प्राप्त किया.

शौनक जी, महानन्द के बाद उसके पुत्र, महापद्म ने नन्दवंश की नींव डाली और पूरे 100 वर्षों तक उस के कुल ने राज किया. इस प्रकार श्री दुर्गा सप्तशती के मध्यम चरित्र का पाठ इतना फलदायी है कि वह अधर्माचरण के कुप्रभावों को भी कम कर सकता है.
(भविष्य पुराण प्रतिसर्गपर्व, द्वितीय खंड का अठारहवां अध्याय )

संकलनः सीमा श्रीवास्तव
संपादनः राजन प्रकाश

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