नाथ पंथ के प्रमुख गुरू गोरक्षनाथजी जी बडे सिद्ध तपस्वी थे. वह अपनी कुटिया के आसपास के गांवों से जीवन के गुजारे भर की भिक्षा ही स्वीकार करते थे.
संचय करते नहीं थे इसलिए प्रतिदिन नियम से भिक्षाटन को निकलते. एक दिन वह भिक्षा मांगने पास के गांव में गए. संयोग से उस दिन नागपंचमी की तिथि थी.
गोरक्षनाथजी एक घर के सामने रुके और गृहस्वामिनी से भिक्षा के लिए पुकार लगाई. पुकार सुनने के बाद भी घर के भीतर से कोई भिक्षा देने नहीं निकला. उन्होंने एकबार और पुकार लगाई.
फिर भी कोई भिक्षा देने को बाहर नहीं आया. गोरक्षनाथ महाराज सोच में पड़ गए कि जिस घर से हर रोज भिक्षा पुकार लगाते ही मिल जाती है आज उस घर की स्वामिनी दो आवाज पर न निकली.
उन्हें चिंता हुई कि कहीं कोई अनहोनी तो नहीं हो गई है. विचार ही रहे थे कि इतने में घर के अंदर से भागती हुई गृहस्वामिनी आई और महाराजजी के भिक्षापात्र में दान किया.
आशीर्वाद देने के बाद गोरक्षनाथजी ने पूछा- माता आप तो प्रतिदिन पहुंचते ही भिक्षा दे देती हो, आज इतनी देर क्यों लगाई भिक्षा देने में? सब कुशल-मंगल तो है?
महिला बोली- महाराजजी आज नागपंचमी है. इसलिए मैं पूजा के लिए मिट्टी के नाग बना रही थी. उसमें मैं इतना मगन हो गयी था कि मैने आपकी आवाज सुनी नहीं.
महाराज ने पूछा- तुम्हें नागपूजा की इतनी श्रद्धा है? महिला ने बताया- हां महाराज. मेरा कोई भाई नहीं है इसलिए मैं नाग देवता को ही अपना भाई मानती हूं और आज के दिन अवश्य पूजा करती हूं.
नागों में महिला की श्रद्धा देखकर महाराजजी प्रसन्न हो गए. उन्होंने कहा- माता तुम मिट्टी के नाग की पूजा करती हो, उसको भाई मानती हो. अगर मैं तुम्हें सचमुच का जिन्दा नाग दूं को पूजा करोगी क्या?
महिला के आनंद का ठिकाना नहीं रहा. गोरक्षनाथ महाराज ने अपनी शक्ति से नाग देवता को प्रकट किया और पूजा के लिए दे दिया. उन्होंने कहा- नाग को देवता मानकर उनकी विधिवत पूजा करने वालों का यह कल्याण करेंगे.
तब से महाराष्ट्र के सांगली के बत्तीस शिराला गांवों में नागपंचमी को जिन्दा नागों की पूजा शुरू हुई थी. आसपास के बत्तीस गांवों के खेतों से नागों को निकालकर पूजा की जाती थी और फिर उन्हें वापस खेतों में छोड़ दिया जाता था.
संकलनः सुप्रिया पाटिल
संपादनः राजन प्रकाश
नागों के पूछा कि यह कथा मुंबई से सुप्रिया पाटिल जी ने भेजी. सुप्रिया जी मूल रूप से शिराला गांव की निवासी हैं.