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भगवान श्रीकृष्ण ने सुदर्शन चक्र से भीम के पौत्र बर्बरीक का शीश काट दिया. वहां बर्बरीक की आराध्य सिद्ध अंबिकाएं प्रकट हुईं. उन्होंने शोकग्रस्त पांडवों को सांत्वना देते हुए बर्बरीक के पूर्वजन्म की कथा सुनानी शुरू की.
मूर दैत्य के अत्याचारों से पीडित पृथ्वी देवसभा में गाय के रूप में अपनी फरियाद लेकर पहुंची- “ हे देवगण! मैं सभी प्रकार का संताप सहन करने में सक्षम हूँ. पहाड़, नदी एवं समस्त मानवजाति का भार सहर्ष सहन करती हुई अपनी दैनिक क्रियाओं का संचालन करती रहती हूँ, पर मूर दैत्य के अत्याचारों से मैं व्यथित हूँ. आप लोग इस दुराचारी से मेरी रक्षा करो, मैं आपकी शरणागत हूँ.”
गौस्वरुपा धरा की करूण पुकार सुनकर सारी देवसभा में सन्नाटा छा गया. थोड़ी देर के मौन के पश्चात ब्रह्माजी ने कहा-“ मूर दैत्य के अत्याचारों से रक्षा के लिए हमें भगवान श्रीविष्णु की शरण में चलना चाहिए और पृथ्वी के संकट निवारण हेतु प्रार्थना करनी चाहिए.”
देवसभा में विराजमान यक्षराज सूर्यवर्चा ने अपनी ओजस्वी वाणी में कहा- ‘ हे देवगण! मूर दैत्य इतना प्रतापी नहीं जिसका संहार केवल श्रीविष्णुजी ही कर सकें. हर बात के लिए हमें उन्हें कष्ट नहीं देना चाहिए. आप लोग यदि मुझे आज्ञा दें तो मैं स्वयं अकेला ही उसका वध कर सकता हूँ.”
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