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मनु और शतरूपा की संतानों आकूति, देवहुति, प्रसूति और उत्तानपाद की चर्चा हो चुकी है. आज भागवत कथा में मनु-शतरूपा के पुत्र प्रियव्रत का प्रसंग

प्रियव्रत मनु के बड़े पुत्र थे लेकिन उन्हें शासन में रूचि न थी इसलिए उन्होंने उत्तानपाद को राजा बनाया और स्वयं तप के लिए वन को चले गए थे.

उत्तानपाद के वंशजों ने अनंत काल तक पृथ्वी पर राज किया. जब प्रचेताओं के पुत्र प्रजापति दक्ष राज-काज त्याग कर वन को चले गए तब पृथ्वी राजा विहीन हो गई.

मनु ने अपने बड़े पुत्र प्रियव्रत जो तप कर रहे थे, उनसे परेशानी बताई और कहा कि संन्यास को छोड़कर राजकाज की बागडोर संभालो. हजारों वर्ष से तप में लीन प्रियव्रत नहीं माने.

हारकर मनु अपने पिता ब्रह्मा के पास गए और उनसे प्रियव्रत को समझाने को कहा. ब्रह्माजी प्रियव्रत को समझाने आए. उस समय प्रियव्रत नारद के साथ बैठे ज्ञानचर्चा कर रहे थे.

ब्रह्माजी ने कहा- जिस प्राणी को भी जीवन मिलता है उसी समय उसके लिए कुछ कर्म भी तय किए जाते हैं. हमारी रूचि हो या न हो, हमें अपना कर्तव्य करना होता है.

श्रीहरि विष्णु ने यही व्यवस्था दी है. प्रियव्रत तुम्हें राजकाज में कोई रुचि नहीं है, किन्तु जिस पृथ्वी पर तुमने जन्म लिया उसे सुरक्षित और सबल करना तुम्हारा कर्तव्य है.

ब्रह्मा ने कहा श्रीहरि की भक्ति से तुमने परम आनंद की प्राप्ति हुई है. श्रीहरि के विधान के अनुसार पृथ्वी को सुखी, संपन्न बनाकर उसे भोगते हुए परमात्मा में लीन हो जाओ.

प्रियव्रत ने प्रभु की इच्छा मान ली. प्रियव्रत ने वन से लौटकर राजकाज संभाला और ब्रह्मा ने उनका विवाह विश्वकर्मा की पुत्री बर्हिष्मती से करा दिया.

प्रियव्रत के एक पुत्री और दस पुत्र हुए. उन्होंने कई वर्षों तक राज किया और साधारण राजा का जीवन जिया. उनका राज्य सुखी और सुरक्षित था और कोई शत्रु नहीं थे.

एक दिन राजा ने सोचा कि सूर्यदेव एक समय में आधी पृथ्वी को ही क्यों प्रकाशित करते हैं. कहीं सूर्यदेव के मार्ग में कोई विघ्न तो नहीं जिससे वह आधे भूभाम को ही प्रकाशित कर पाते हैं.

प्रियव्रत ने निश्चय किया कि वह सूर्य की राह का पता लगाकर रात को भी दिन जैसा प्रकाशित करेंगे. वह सूर्य के समान तेजस्वी रथ पर सवार हुए सूर्य के पीछे-पीछे चक्कर लगाने लगे.

उन्होंने पवनवेग से चलकर धरती की सात परिक्रमाएं कर लीं. उनके रथ के पहियों के कारण पृथ्वी पर सात धब्बे बने और वह सात हिस्से में बंट गई. इस तरह सात द्वीप बने.

प्रियव्रत के 10 में से तीन पुत्र बचपन में ही संन्यास के मार्ग पर चले गए थे. सात पुत्रों को सातों द्वीपों का शासन करने को कहा. बड़े पुत्र अग्नित्र को अपने स्थान पर राजा बना दिया.

प्रियव्रत का मन फिर से उचट गया था. उन्होंने पृथ्वी के प्रति अपना कर्तव्य पूरा कर लिया था. अपने गुरू नारद के परामर्श पर वह फिर संन्यास लेकर तप को चले गए.

अग्नित्र जम्बूद्वीप के राजा हुए. अग्नित्र के पुत्र थे नाभि. नाभि संतानहीन थे. पुत्र प्राप्ति के लिए नाभि ने यज्ञ कराया और प्रसन्न होकर नारायण प्रकट हुए.

नाभि ने नारायण से मांगा- प्रभु मुझे आप जैसा पुत्र प्राप्त हो जाए. नारायण ने कहा कि मेरे जैसा कोई दूसरा नहीं है. इसलिए वचनबद्ध होने के कारण मैं स्वयं आपके पुत्ररूप में आउंगा.

समय आने पर नाभि को नारायण के अंश रूप में पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई. इनका नाम पड़ा-ऋषभदेव. युवा होने पर ऋषभदेव का विवाह इंद्र की बेटी जयंती से हुआ.

ऋषभदेव और जयंती के सौ पुत्र हुए. इनमें सबसे बड़े भरत जी थे. ऋषभदेव के सभी पुत्र स्वयं संत स्वभाव के थे. ऋषभदेव ने एक दिन पुत्रों को बुलाया और उन्हें ब्रह्मज्ञान दिया.

ऋषभजी बोले- पुत्रों, मानव शरीर हमें पशुओं की तरह केवल संसार का सुख भोगने के लिए नहीं मिला है, बल्कि इसके उच्च लक्ष्य हैं. लक्ष्यों की पूर्ति के लिए मन की शुद्धि जरूरी है.

लोकसेवा का कर्तव्य, मनुष्य को मोक्ष की ओर ले जाता है. कर्मों में संग होने और इन्द्रिय विषयों में लिप्त होना संसार में डुबा देता है. अहंकार मानव का सबसे बड़ा शत्रु है.

पुत्रों अपने बड़े भ्राता भरत को पिता समान समझना. संसार में वैसे ही रहना जैसे मैंने अभी तुम्हें समझाया है. भक्ति से मोहबंधन को काटते रहो और खुद को इस जन्म मृत्यु के फेर से निकालो.

ऋषभदेवजी भरत को राजा बनाया और वन को चले गए. अवधूत होकर आसक्ति त्याग दी और तप करते हुए योगअग्नि में स्वयं को भस्म करके अपने धाम को चले गए.

कल भागवत कथा में पढ़िए श्रीहरि के अनन्य भक्त तपस्वी जड़ भरत की कथा.

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