श्रावस्ती में कृशागौतमी नाम की एक कन्या रहती थी. गौतमी उसका असली नाम था. काम करते-करते वह जल्दी थक जाती थी, अतएव लोग उसे कृशागौतमी के नाम से पुकारते थे. गौतमी युवा हुई तो उसका विवाह हो गया.
गौतमी गरीब परिवार से थी, इसलिए ससुराल के लोग उसका यथोचित आदर न करते थे. कुछ समय बाद गौतमी के एक पुत्र हुआ. अब घर में उसका आदर होने लगा, लेकिन समय ने तो कुछ और ही तय कर रखा था.
गौतमी का बेटा जब कुछ बड़ा हुआ और इधर-उधर खेलने लायक हुआ तो एकदिन अचानक उसकी मृत्यु हो गई.
गौतमी ने सोचा- पुत्र-जन्म से पहले मेरा इस घर में अनादर होता था. पुत्र-जन्म के बाद ही मेरा परिजन आदर करने लगे. अब ये लोग मेरे प्रिय पुत्र को न जाने कहाँ छोड़ देंगे?
इसलिए गौतमी अपने मृत पुत्र को लेकर दूर भाग गई इस मंशा से कि वह उसका ईलाज कराकर स्वस्थ करेगी और पुनः लेकर आएगी. मृतपुत्र को गोद में लेकर घर-घर दवा मांगती फिरने लगी.
उसे पागल मान लिया गया. लोग ईंट-पत्थर मारकर उसे भगाते और कहते, ‘‘पगली! कहीं मरे हुए की भी दवा होती है,’’
पर गौतमी का तो सबकुछ उसी पुत्र के आसरे था इसलिए वह सब सहन कर रही थी. किसी भले आदमी को गौतमी पर बहुत दया आयी. उसने सोचा, इसमें इस बेचारी का दोष नहीं, यह तो पुत्र-शोक से पागल हो गयी है. इसकी दवा भगवान बुद्ध को छोड़कर और किसी के पास नहीं है.
उसने कहा, ‘‘माँ! तुम भगवान् बुद्ध के पास जाओ और उनसे दवा पूछो. उनके अतिरिक्त कोई और बता भी नहीं सकता. व्यर्थ भटकने से क्या लाभ?’’
गौतमी बुद्ध के पास जा पहुँची और अभिवादन करके बोली, ‘‘महाराज! मेरे पुत्र को दवा दीजिए जिससे यह पुनः भला-चंगा हो जाए.’
बुद्ध ने कहा, ‘‘तुमने अच्छा किया जो यहाँ चली आयी. तुम इस नगर में से, किसी घर से सरसों के कुछ दानें मांगकर ला मैं उससे औषधि बना दूंगा पर एक शर्त है सरसों उसी घर से होने चाहिए जिस घर में कभी किसी की मौत न हुई हो.’’
गौतमी बहुत प्रसन्न हुई और सरसों के दाने खोजने चल दी.
पहले घर में जाकर उसने निवेदन किया, ‘‘देखिए, बुद्ध भगवान् ने मुझे आप लोगों के घर से सरसों माँगकर लाने को कहा है, आप लोग सरसों देने की कृपा करें.’’
गौतमी की बात सुनकर एक आदमी झट से घर में से सरसों के दाने ले आया और गौतमी को देने लगा.
तब गौतमी ने पूछा, ‘‘पहले यह बताइए कि इस घर में किसी की मौत तो नहीं हुई?’’
यह सुनकर घर के लोग आश्चर्य से कहने लगे, ‘‘गौतमी! यह तू क्या कह रही है? यहाँ कितने आदमी मर चुके हैं, इसका कोई हिसाब है?’’
गौतमी ने कहा- ‘‘ फिर तो मैं आपके घर से सरसों न लूँगी. भगवान ने कहा है कि उसी घर से लाना जहां कभी कोई मौत न हुई हो.’
गौतमी दूसरे घर गयी, फिर तीसरे, फिर अनगिनत. सब जगह उसे वही उत्तर मिला. उसने आधार नगर छान दिया पर ऐसा कोई घर मिला ही नहीं.
लोगों के घरों से सरसों के दाने मांगते वह उनके प्रियजनों की चर्चा भी सुन लेती जिनकी मृत्यु से उन्हें बड़ा धक्का पहुंचा था. इस तरह उसने मृत्यु की अनेक दुखद कथाएं भी सुन लीं.
सहसा उसे ध्यान आया कि शायद भगवान् ने जान-बूझकर ही सरसों माँगने के लिए भेजा है. वह मुझे कोई उपदेश कर रहे थे.
वह अपने मृत पुत्र को लेकर श्मशान गयी और उसका अंतिम संस्कार के लिए तैयार हुई. पुत्र के शव को अंतिम बार हाथ में लेकर बोली, ‘‘प्रिय पुत्र! मैंने समझा था शायद तुम्हीं अकेले मरने के लिए पैदा हुए हो लेकिन अब मुझे मालूम हुआ कि मौत सबके लिए है. जो पैदा हुआ है, उसे एक न एक दिन अवश्य मरना है. यह गति तो जीवन के साथ ही निश्चित हो जाती है.’’
अंतिम संस्कार के बाद गौतमी बुद्ध के पास आई.
बुद्ध ने पूछा, ‘‘गौतमी! सरसों के दाने मिल गये?’’
गौतमी ने कहा, ‘‘भगवन्! सरसों नहीं चाहिए. उनका काम हो गया है! मैं आपका आभार व्यक्त करने आई हूं. आपने मेरी आंखें खोल दीं. इसी पुत्र से मैं सबकुछ देख रही थी. जीवन कहीं रूकता नहीं. मैं अपने दांपत्य में पुनः जाऊंगी.’’
संसार में ऐसी कोई औषधि ही नहीं है जो मृतशरीर को जीवित कर दे. प्रकृति ने कैसी अद्भुत व्यवस्था दी है. जीवित शरीर चाहे जितना भी बीमार हो लेकिन यदि सांसे चल रही हों तब तक उसके सड़-गल जाने का भय नहीं रहता. सांसें थम जाने के बाद संसार के सबसे सुंदर जीव का शरीर सड़ने-गलने लगता है.
यदि यह व्यवस्था न होती तो कोई भी अपने प्रियजन के शरीर का अंतिम संस्कार ही न करता. विज्ञान कहता है ऊर्जा न तो उत्पन्न की जा सकती है न नष्ट, बस उसका स्वरूप बदलता है. शरीर भी ऊर्जा का रूपांतरण का ही एक उत्कृष्ट उदाहरण है. एक शरीर जब तक जलेगा नहीं, गलेगा नहीं दूसरा कैसे आएगा!
अमर होने का बस एक ही तरीका है- जीवन में काम ऐसे कर जाओ कि रोज आपका नाम आदर के साथ लोग ले. लोगों के हृदय में अमर रहें. मृत शरीर को पुनः जीवित कर देने की इससे श्रेष्ठ कोई दूसरी औषधि न है, नो होगी.
संकलनः राजन प्रकाश