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शनिदेव तत्काल समझ गए कि यह कोई पुण्यात्मा और तेजस्वी मानव है. इस पर क्रोध नहीं करना चाहिए. इसकी बात सुन लेनी चाहिए, फिर निर्णय करना चाहिए

शनिदेव ने राजा दशरथ से कहा- हे पराक्रमी राजा! मेरी टेढ़ी दृष्टि के कारण गणेशजी को मस्तकविहीन होना पड़ा था, अनेक देवों ने अपना पराक्रम गंवा दिया. तुम भी मृत्यु के मुख में ही समाते-समाते बचे हो परंतु पुनः मुझे चुनौती देने आ पहुंचे. मैं तुम्हारी वीरता से प्रसन्न हूं.

मैंने जान लिया है कि तुम न्यायप्रिय राजा हो. प्रजा के कल्याण के लिए मेरा सामना करना फिर से आए हो. जो दूसरों के कल्याण के निमित्त जो अपने प्राण संकट में डाल दे मैं उन पर प्रसन्न होता हूं. इसलिए अब मैं तुम्हारा कोई अहित नहीं करूंगा.

तुम्हारे दुःसाहस के लिए मैं तुम्हें क्षमा करता हूं. बताओ तुम यहां क्यों आए हो?

राजा दशरथ शनिदेव के ये वचन सुनकर कृतार्थ हुए. उन्होंने एक सुंदर स्तोत्र से शनिदेव की भावपूर्ण स्तुति और पूजा की. शनि इससे बड़े प्रसन्न हुए.

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