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तो अयोध्या के विरूद्ध यह षडयंत्र शनिदेव का है. यह जानकर दशरथ के क्रोध की सीमा ही न रही.
देवताओं का राजा मेरी प्रजा पर कृपालु है परंतु एक साधारण सा देव मेरी प्रजा को कष्ट दे रहा है! उसे तो तत्काल दंड देना होगा ताकि भविष्य में कोई अन्य देवता मेरी प्रजा को पीड़ित करने की कल्पना भी न कर सके.
ऐसे विचारों के साथ क्रोध में भरे दशरथ शनिदेव के स्थान की ओर चल पड़े. राजा दशरथ के रथ की गड़गडाहट शनिदेव के कानों तक भी पड़ी.
उन्होंने जान लिया कि यह रथी उनके प्रति बैरभाव रखता है और युद्ध की मंशा से ही आ रहा है. इसे तो अपना प्रभाव दिखाना ही होगा.
शनि ने क्रोध भरी दृष्टि से दशरथ को देखा. शनि की कोप दृष्टि पड़ते ही राजा के रथ के पहिए टूट गए. वह घोड़े समेत धरती पर गिरने लगे.
गरुड़पुत्र जटायु यह सब देख रहे थे. उन्होंने राजा दशरथ से मित्रता का यह सही अवसर समझा. वह तेजी से दशरथ की ओर उड़े.
जटायु ने अपने पंख फैला लिया. इससे दशरथ को सहारा मिल गया और वह भूमि पर गिरने से बच गए. जटायु ने दशरथ की प्राण रक्षा की थी.
कृतज्ञ दशरथ ने जटायु के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट की और दोनों में गहरी मित्रता हो गई. यह मित्रता दोनों ने हमेशा निभाई. इसकी कथाएं कभी सुनाऊंगा.
जटायु ने सीताजी को रावण द्वारा हरण से बचाने के लिए युद्ध भी किया था और अपने प्राण गंवाए थे इससे तो आप सब परिचित हैं ही. खैर, अभी पुरानी कथा पर ही लौटते हैं.
जटायु ने पूछा कि आप क्रोध से शनिदेव की ओर क्यों गए थे. तब दशरथ ने सारी बात बता दी और परामर्श मांगा.
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