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उसके आनंद की कोई सीमा न थी. धन-दौलत के भंडार उसके कदमों के नीचे थे. जीवन बहुत सुखी और समृध्द हो गया.
किंतु लकडहारा फिर सोचने लगा- उस सन्यासी को जब इतनी सारी दौलत का पता था तो फिर उसने स्वयं क्यों नहीं इनका उपभोग किया.

यह प्रश्न उसके दिमाग में घूमता रहा. बार-बार घूमता रहा. उसने बहुत सोचा लेकिन लकडहारे को उत्तर नहीं मिला.

तब वह फिर उस सन्यासी के पास गया और जाकर बोला- महाराज आप ने मुझे आगे जाने को कहा और धन-संपत्ति का पता दिया, लेकिन आप भला इस संपत्ति का आनंद क्यों नहीं उठाते?

इसपर संन्यासी ने सहज उत्तर दिया. वह बोले ”भाई तेरा कहना उचित है, लेकिन तू जहां से रूक गया उसके और आगे जाने से ऐसी खास चीज हाथ लगती है जिसकी तुलना में ये हीरे और माणिक केवल मिट्टी और कंकड़ जैसे महसूस होते हैं.

मैं उसी खास और सबसे मूल्यवान चीज की तलाश में मगन हूं. उस मूल्यवान चीज का नाम है- ईश्वरलाभ.
सन्यासी की गूढ़ बात से लकडहारे के मन में उतर गई. वह समझ गया था कि कोई भी दौलत ईश्वर के बिना पूर्ण नही होती.

संपत्ति मन को क्षणिक सुख दे सकते हैं शाश्वत सुख नहीं. संपत्ति के साथ आती है उसे सहेजकर रखने की व्यथा. इस व्यथा का निदान होता है ईश्वर लाभ की संपदा के हाथ लगने के बाद.

संकलन व प्रबंधन: प्रभु शरणम् मंडली
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