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उसके मन में द्वेष हुआ और उसने पांडवों से बदला लेने की ठान ली. बौखलाए दुर्योधन को शकुनि ने सलाह दी कि तुम पांडवों को द्यूत-क्रीड़ा में हराकर उस अपमान का बदला लो. छल से दुर्योधन ने पांडवों को जुए में पराजित कर दिया.
पराजित होने पर प्रतिज्ञानुसार पांडवों को बारह वर्ष के लिए वनवास भोगना पड़ा. वन में रहते हुए पांडव अनेक कष्ट सहते रहे. एक दिन भगवान कृष्ण मिलने आए, तब युधिष्ठिर ने उनसे अपना दुख दूर करने का उपाय पूछा.
श्रीकृष्ण ने कहा- ‘हे युधिष्ठिर! तुम विधिपूर्वक अनंत भगवान का व्रत करो, इससे तुम्हारा सारा संकट दूर हो जाएगा और तुम्हारा खोया राज्य पुन: प्राप्त हो जाएगा. मैं तुम्हें इस व्रत के प्रभाव की एक कथा सुनाता हूं. ध्यान से सुनो.
प्राचीन काल में सुमंत नाम का एक नेक और तपस्वी ब्राह्मण था. उसकी पत्नी का नाम दीक्षा था. दीक्षा ने एक परम सुंदरी धर्मपरायण तथा ज्योतिर्मयी कन्या को जन्म दिया जिसका नाम सुशीला रखा. सुशीला विवाहयोग्य हुई तो उसकी माता दीक्षा की मृत्यु हो गई.
पत्नी के मरने के बाद सुमंत ने कर्कशा नामक स्त्री से दूसरा विवाह कर लिया. सुशीला को बहुत कष्ट होने लगे. सुमंत ने सुशीला का विवाह कौंडिन्य ऋषि के साथ कर दिया. विदाई में हर माता-पिता अपनी संतान को कुछ न कुछ उपहार अवश्य देते हैं.
सुमंत ने कुछ देना चाहा तो कर्कशा ने द्वेषवश उपहारस्वरूप कुछ देने के नाम पर अपने दामाद को कुछ ईंटें और पत्थरों के टुकड़े एक कपड़े में बांधकर दे दिए. कौंडिन्य ऋषि इससे दुखी होकर अपनी पत्नी को लेकर अपने आश्रम की ओर चल दिए परंतु रास्ते में ही रात हो गई.
वे एक नदी तट पर संध्या करने लगे. वह भाद्रपद शुक्लपक्ष की चतुर्थी तिथि थी. सुशीला ने देखा- वहां पर बहुत-सी स्त्रियां सुंदर वस्त्र धारणकर किसी देवता की पूजा पर रही थीं. सुशीला उन स्त्रियों के पास गई और पूछा- बहन तुम यह कौन सा व्रत कर रही हो. इसमें किसकी पूजा करती हो. इसका क्या प्रभाव है, सब मुझे कहो.
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