शिवदृष्टि नाम के एक ब्राह्मण तपस्या के लिए वन में गए. उन्होंने अनेक वर्ष तक महादेव की मानवों के लिए असंभव जैसी कठिन साधना की और शिवस्वरूप हो गए.
शिवदृष्टि शरीर त्यागर महादेव के लोक चले गए और उनके प्रिय अनुचर हो गए. कलियुग के तीन हजार वर्ष बीतने के बाद भगवान शंकर ने उन्हें पृथ्वी पर जाकर सनातन धर्म की रक्षा के प्रयत्न का आदेश दिया.
शिवदृष्टि पृथ्वी पर आगमन को तैयार हुए. उस समय उज्जैनी में राजा भतृहरि राज करते थे. राजा भर्तृहरि के एक छोटे भाई थे, विक्रमादित्य. महेन्द्रादित्य गणनायक तथा मलयवती के पुत्र विक्रमादित्य पर महादेव की विशेष कृपा थी.
विक्रमादित्य बाल्यकाल से ही परम शिवभक्त थे. पांच बरस की उम्र में ही तपस्या करने वन चले गए. 12 साल तक साधना करके महादेव को प्रसन्न किया और अनेक सिद्धियां प्राप्तकर उज्जयनी लौटे.
राजा भर्तृहरि का समय सुख और समृद्धि से पूर्ण था. उनके राज्य में जयंत नाम का एक ब्राह्मण रहता था. जयंत ने घोर तपस्या की जिससे देवराज इन्द्र प्रसन्न हो गए. इंद्र ने जयंत को एक ऐसा फल प्रदान किया जिसे खाने वाला अमर हो सकता था.
ब्राह्मण ने सोचा कि उसे अमर होने से क्या लाभ! राजा भतृहरि जैसा न्यायप्रिय और प्रजापालक राजा यदि अमर हो जाए तो पृथ्वी पर रामराज्य आ जाए. इसलिए ब्राह्मण जयंत ने वह फल राजा को दे दिया.
भतृहरि अपनी रानी पिंगला से अत्यधिक प्रेम करते थे. पिंगला असाधारण रूपवती थीं सो राजा ने सोचा कि इस फल के लिए योग्यपात्र रानी पिंगला ही है. भतृहरि ने फल पिंगला को दे दिया. किन्तु रानी का चरित्र ठीक नहीं था.
वह राजा के प्रति कपट रखती थी और उसे सेनापति से प्रेम था. उसने फल अपने प्रिय सेनापति को दे दिया. सेनापति का संबंध रानी से था तो जरूरर पर वह प्रेम राजनर्तकी से करता था. सेनापति ने भी फल स्वयं न खाकर राज नर्तकी को दे दिया.
इस प्रकार यह अमर फल राजनर्तकी के पास पहुंच गया. फल को पाकर उस राजनर्तकी ने सोचा कि उसके अमरत्व की क्या उपयोगिता. अमरफल का उसके जैसे निंदित कर्म वाली स्त्री के लिए क्या औचित्य, क्यों न राजा की दृष्टि में सम्मान बढ़ा लिया जाए.
राजनर्तकी ने अमर फल राजा लेकर राजदरबार पहुंची और फल राजा को अर्पित कर दिया. रानी पिंगला को उपहार स्वरूप में दिया दिव्यफल राजनर्तकी के पास पहुंच गया था. राजा इससे आश्चर्यचकित थे. राजा के पूछने पर राजनर्तकी ने बता दिया कि उसे फल कैसे मिला.
फिर राजा ने पूरा वृत्तान्त पता कर लिया. इस घटना का राजा के ऊपर गहरा प्रभाव पड़ा. राजा का मन इस झूठे संसार से खट्टा हो गया. उसने मिथ्या संसार को त्यागकर संन्यास लेने का निश्चय कर लिया.
शीघ्र ही भर्तृहरि ने अपने छोटे भाई विक्रम को राज्य का उत्तराधिकारी बना दिया और वन में तपस्या करने चले गये. विक्रमादित्य ने राज्य का विस्तार किया और एक समृद्ध राज्य की नींव रखी.
विक्रमादित्य का प्रताप ऐसा था कि उन्हें बत्तीस मूर्तियों और विभिन्न प्रकार की मणियों, शुभ धातुओं से सजा एक रमणीय और दिव्य सिंहासन प्राप्त हुआ. उस सिंहासन को महादेव की सुरक्षा प्राप्त थी.
दिव्य सिंहासन प्राप्त विक्रमादित्य ने महाकालेश्वर में जाकर देवाधिदेव महादेव की पूजा की और अनेक व्यूहों से पूरिपूर्ण धर्म-सभा का निर्माण किया. भगवती पार्वती ने रुद्रकिंकर जिसे वैताल नाम से जाना गया, उसे सिंहासन की रक्षा का भार दिया.
राजा को ब्राह्मणों औऱ विद्वानों से धर्म-गाथाएं सुनने का शौक था. इस पर वैताल ने राजा से कहा- राजन! यदि आपको सुनने की इच्छा हो तो मैं आपको इतिहास से परिपूर्ण रोचक आख्यान सुनाता हूं. वेताल ने राजा को 25 ज्ञानपूर्ण कथाएं सुनाईं जिसे हम भविष्य में लेकर आएंगे.
(संदर्भः भविष्य पुराण और अन्य)
संकलनः सीमा श्रीवास्तव
संपादनः राजन प्रकाश