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रघु पुलस्त्यवंशी होने के कारण उसका सम्मान करते रहे. उन्होंने बहुत विनम्रता दिखाई और उसे प्रेम और सम्मान देकर युद्ध टालने की भरसक कोशिश की. रावण ने समझ लिया कि शायद रघु उससे भयभीत हैं.

उसने उनके राजा होने और क्षत्रिय होने को चुनौती दी. राज-पाट त्यागकर वन में जाकर रहने की बात करने लगा. आयोध्यावासियों का अपमान करने लगा कि उनका दुर्भाग्य है कि वह ऐसे कायर राजा से शासित हैं.

वह अपमान करने में सारी सीमाएं लांघ गया तो रघु युद्ध के लिए तैयार हो गए. उन्होंने युद्ध के लिए आतुर रावण को दंड देने के सिए विवश होकर रावण पर प्रयोग करने के लिए अमोघ शक्ति प्रयोग करने की ठानी.

रघु ने अमोघ बाण का धनुष पर संधान किया ही था कि तभी वहीं ब्रह्माजी प्रकट हो गए. उन्होंने रघु से कहा कि वह रावण के वध का विचार तत्काल त्याग दें क्योंकि विधि ने इसके अंत का विधान कुछ और ही तय कर रखा है.

ब्रह्माजी बोले- यह बाण निष्फल नहीं होता पर इसकी मौत आपके हाथ से नही लिखी है. रघु मान गए पर समस्या यह थी कि जो बाण रावण के अंत के संकल्प से साधा गया था वह वापस तरकस नहीं जा सकता. छूटेगा तो रावण का अंत ही हो जाएगा.

ब्रहमाजी ने कहा- यह अमोघ बाण आप मुझे दे. दो रावण की मौत इसी बाण से समय आने पर हो जाएगी. जिसके द्वारा इसका अंत होना है, उसके पास यह बाण मैं पहुंचा दूंगा.

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1 COMMENT

  1. Bahut achha lagata hai jab aisi katha sunane ko milati hai man sidha prabhu ke charano mai pahunch jata hai jai shree
    ram

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