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ब्रह्माजी ने देवताओं को जय-विजय को असुर होने के शाप की कथा सुनाई. एक बार चारों सनकादि ऋषि- सनक, सनातन, सनन्दन और सनतकुमार नारायण के दर्शन के लिए आए.
चारों सृष्टि के प्रथम पुत्र थे लेकिन उन्हें वरदान था कि वह हमेशा निश्छल रहेंगे. उनका स्वभाव पांच बरस के बालक जैसा ही रहेगा.
सभी देवताओं द्वारा पूजित सनतकुमारों या सनकादि को श्रीहरि का अंशावतार माना जाता है. वे बाल रूप में ही रहे और वस्त्र भी न पहनते थे.
बैकुण्ठ के छह द्वारों पर तो उन्हें किसी ने भी नहीं रोका लेकिन सातवें द्वार पर तैनात श्रीहरि के प्रिय पार्षद जय-विजय ने उन्हें प्रभु के दर्शन से रोक लिया.
जय-विजय ने सनकादि से कहा- श्रीहरि अभी माता लक्ष्मी के साथ एकांत में हैं. अभी हम आपको भीतर जाने की अनमुति नहीं दे सकते.
सनकादि ने जय विजय को अपना परिचय दिया फिर भी वे नहीं माने. उन्होंने जय-विजय को समझाने की तीन बार कोशिश की लेकिन वे सुनने को राजी न थे.
ऋषि कुमार क्रोधित हो गए. उन्होंने जय-विजय से कहा कि तुम श्रीहरि के सान्निध्य में रहने के योग्य नहीं हो. इतने वर्ष तक प्रभुसेवा से भी तुम्हें बुद्धि नहीं हुई.
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sir mujhe apki aur se sunai ja rahi shri mad bhagwat katha bahaut he achhi lag rahi hai kripya karke aap isey har roz sunaiye dhanyawad
Katha sunana acha lagta hai aap ise jari rakhe