महाभारत काल की बात है. महाराज युधिष्ठिर अपने भाइयों और द्रौपदी के साथ वन में विचर रहे थे. एक बहुत ही जटिल और कांटों से भरे मार्ग को पारकर वे जहां पहुंचे वह बहुत रमणीय स्थल था.
पता चला कि यह तो एक उत्तम तीर्थ है. यहां से भ्रमण कर कुछ दिनों पहले मुनिवर नारद भी लौट चुके हैं. युधिष्ठिर ने सोचा कि क्यों ने यहां किसी मुनिवर का सत्संग किया जाए और कुछ समय उनका धर्म दर्शन वाणी सुनी जाये.
शाम हो चुकी थी. इसी समय बहुलोमा तथा स्थूलशिरा नामक दानव वहां आये और द्रौपदी को देख उनपर मुग्ध हो गये. वे दोनों ही द्रौपदी के अपहरण की जुगत सोचने लगे. बहुरोमा ने इसके लिए तत्काल ही मुनि का रूप ले लिया.
बहुरोमा कुश की चटाई बिछाकर बैठ गया. ध्यान मुद्रा में उसके हाथ में नाक तक ऊंची उठी माला थी जिसे वह तेजी से सरकाये जा रह था. उंगली में पावित्री धारण किए आंखें मूंदकर लगातार जप में लगा हुआ था.
युधिष्ठिर मुनि बने बहुरोमा के पास गये और दंड़वत प्रणाम करके बोले- हे मुनिवर धर्मात्मा संतों का दर्शन किसी तीर्थ से कम नहीं होता. हमारे सौभाग्य हैं कि आप मिले. कृपया इस रेवा खंड़ में स्थित कुछ महत्वपूर्ण तीर्थों के बारे में हमें बताइये.
बहुरोमा अपना मुंह खोलता कि तभी वहां एक दूसरे मुनिवर प्रगट हो गये. यह दूसरा दानव स्थूलशिरा था. वह कलप-कलप कर रो रहा था. वह सहायता की बार-बार गुहार लगा रहा था.
उसने कहा- मेरा सुंदर कमंडल, स्फटिक की माला और मनोहर खाट छीनकर, मुझे थप्पड़ों से मार-मार कर धराशायी कर दिया. मेरा तो सर्वस्व लुट गया. अब किसी ने उनसे बदला नहीं लिया तो मैं अपने प्राण त्याग दूंगा. पांडवों ने यह सब सुन ऐसी दशा बनाने वाले के बारे में पूछा.
मुनि कराहते हुए बोलता रहा- जंगल के समीप रहने वाले दानवों ने किया यह. जो मेरी रक्षा करेगा उसे पृथ्वी के बराबर के दान और मेरु पर्वत बराबर की दक्षिणा का पुण्य होगा. जो नहीं करेगा नरक का भागी होगा.
मुनि के कातर वचन सुनकर युद्धिष्ठिर बोले- द्रौपदी तुम यहीं मुनि के पास ठहरो, यात्रा से थकी हो. विश्राम करो. हम देख कर आते हैं. रात होने वाली थी. अत: सब ने हाथों में जलती हुई आग की लुकाठियां पकड़ी और वन की ओर चले.
वन में कुछ दूर जाने पर जब कुछ संदिग्ध न दिखा तो युद्धिष्ठिर ने कहा- अर्जुन तुम वापस लौट जाओ और द्रौपदी का ध्यान रखो. मुझे कुछ संदेह होता है. अर्जुन तत्काल लौट गये. शेष सभी वन में आगे बढ गये .
आगे जाने पर भी कुछ विशेष नहीं दिखा तो युधिष्ठिर ने सूर्य की ओर देखकर कहा- हे देव यह सब क्या है. इस रात्रि की बेला में क्या यह कोई छलावा य माया है, यदि मेरी सत्यवादिता और धर्म पर आस्था अटल है तो कृपया सच सच बताएं.
युधिष्ठिर के ऐसा कहने पर आकाशवाणी हुई. युधिष्ठिर! जो तुम्हारी बगल में खड़ा है वह स्थूलशिरा नामक दानव है. मुनि स्थूलशिरा तो सकुशल हैं. उनपर किसी तरह का संकट नहीं है. वह सुखपूर्वक हैं यह सब तो इस दुष्ट की माया है.
यह सुनकर भीम ने एक घूंसा उस दानव के सिर पर मारा जिससे वह मरा तो नहीं पर दर्द से पागल होकर अपने उग्र रूप में आ गया. वह भीम से भीड़ गया. भीषण युद्ध छिड़ा. अंतत: दानव को भीम ने मारकर उसका सर काट लिया.
इधर अर्जुन जब मुनि की कुटिया पर पहुंचे तो न द्रौपदी दिखीं न ही वह साधु. अर्जुन आस-पास देखा पर कहीं कोई न था. शीघ्र ही अर्जुन एक ऊंचे वृक्ष पर चढकर दूर-दूर तक निगाह दौड़ाने लगे.
अर्जुन ने देखा कि बलशाली दानव उनकी भार्या द्रौपदी को अपने कंधे पर टांगे, बहुत तीव्र गति से एक दिशा में भागा जा रहा है. अर्जुन तीव्रता के साथ दानव का पीछा करने लगे. भारी भरकम दानव अर्जुन से तीव्र नहीं भाग सकता था.
जल्द ही अर्जुन उस दानव के इतना समीप पहुंच गये कि द्रौपदी की चीत्कार उन्हें स्पष्ट सुनाई देने लगी. अर्जुन के समीप पहुंचने पर दानव भयभीत हो द्रौपदी को कंधे से उतारकर बड़े वेग से भागा.
दैत्य तेजी से दौड़ रहा था. उसका पीछा करने के लिए अर्जुन ने गति इतनी तीव्र की कि आस पास के पेड़ उखड़ने लगे और उनके पदचाप से धरती हिलने लगी. इससे दानव डगमगाया और भयभीत होकर अंतत: धराशायी हो गया.
दानव के गिरने के साथ ही वहां अचानक एक पल को अंधेरा हुआ फिर दूसरे ही क्षण प्रकाश फूट पड़ा. वहां पर पीताम्बरधारी, हाथों में शंख ,चक्र और गदा लिए हुए स्वयं भगवान श्रीविष्णु प्रकट हुए. उनका रूप अत्यंत मोहने वाला था.
अर्जुन विस्मित हो जहां के तहां खड़े रह गये. असुर पर प्रहार करने की बात ही भूल गए. वह उस चतुर्भुज स्वरूप प्रभु के चरणों पर गिर गए और उनकी स्तुति करने लगे.
अर्जुन बोले- प्रभु यह कौन सी वैष्णवी माया है. एक साधारण मनुष्य में कहां इतनी समझ कि आपकी माया समझ सके. मैंने वन में चलते हुए यदि भूल से आपका कोई अपमान किया हो, तो कृपाकर मुझे क्षमा कर दें.
भगवान बोले- हे अर्जुन आपने कोई अपराध नहीं किया. मैं चतुर्भुज भगवान श्रीविष्णु नहीं मैं तो दानव बहुरोमा हूं. मैंने अपने पूर्वजन्मो के कर्मों के आधार पर भगवान श्रीविष्णु का स्वरूप प्राप्त किया है.
अर्जुन बोले- श्रीविष्णु का स्वरूप प्राप्त होना तो बहुत दुर्लभ है तुमने ऐसा क्या किया जिससे यह तुम को यह सौभाग्य प्राप्त हुआ. निस्संदेह तुम्हारा पूर्वजन्म बहुत सफल रहा पर इस जन्म में पुन: दानव यह कैसे? तुम अपने पूर्व जन्म की कथा सुनाओ.
बहुरोमा बोला- हे अर्जुन इन सबके पीछे मेरे दो पूर्वजन्मों के कर्म हैं. इससे पहले के जन्म में मैं चंद्रवंशीय राजा जयध्वज था. उससे पहले के जन्म में मैं एक दुराचारी ब्राह्मण था लेकिन मैंने विष्णु मंदिर में झाड़ू बुहारी की थी जिससे मुझे राजकुल प्राप्त हुआ था.
निम्न ब्राह्मण कुल में पैदा होने के कारण मुझे आचार-व्यवहार और कर्मों का उचित ज्ञान नहीं था. मैं शास्त्रों को न जानते हुए भी लोगों को छलकर पौरोहित्य कर्म करता था. साथ ही स्त्री भोग और दूसरे अनाचारों में लिप्त रहता था.
अर्जुन कथा को चाव से सुन रहे थे. बहुरोमा ने कहा- हे अर्जुन अच्छा हो कि अपने भाइयों के साथ मेरे पूर्वजन्मों की शिक्षाप्रद और रोचक कथा सुनो. विष्णु मंदिर में लिपाई पुताई और देखरेख का पुण्य प्रताप कितना प्रबल होता है यह सब बताना चाहता हूं.
अर्जुन के अन्य भाई भी तब तक उस मुनि के आश्रम पहुंच चुके थे जहां उन्होंने द्रौपदी को छोड़ा था. अर्जुन बहुरोमा और द्रौपदी के साथ वहां लौटे. सबने पूरे मनोयोग से बहुरोमा के पूर्व जन्म के राजा जयध्वज होने और काम के वशीभूत को कामी ब्राह्मण की रोचक कथा सुनी.
विष्णु मंदिर में सेवा का क्या पुण्यफल है, यह कथा आपको कल सुनाएंगे.
संकलनः सीमा श्रीवास्तव
संपादनः राजन प्रकाश