प्रचेताओं के औरस और अप्सरा के गर्भ से दक्ष उत्पन्न हुए. विंध्यपर्वत के पास दक्ष श्रीहरि की आराधना करने लगे. उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगावन विष्णु ने दर्शन दिए.
श्रीहरि ने दक्ष को उत्तम ज्ञान देने के बाद कहा- तुम प्रजापति बनो. मैं तुम्हें प्रजापति पंजचन से पैदा हुई एक सुंदर कन्या आसिक्ती देता हूं. उसके साथ संतान पैदा करो. तुम्हें सृष्टि की वृद्धि का कार्य करना है.
भगवान के आदेश पर दक्ष ने आसक्ती के साथ रमण किया और हर्यश्व नामक दस हजार पुत्र पैदा किए. दक्ष पुत्र तेजस्वी थे. जन्म के साथ ही सभी ज्ञान से युक्त थे.
दक्ष ने उन्हें कहा कि श्रीहरि का आदेश है कि हमें सृष्टि की वृद्धि करना है. इसलिए तुम सभी सारे संसार में फैल जाओ और उत्तम संतान पैदा कर सृष्टि को बढ़ाओ.
दक्ष पुत्र पिता की आज्ञा से दक्षिण की ओर चले और सिंधु और समुद्र के संगमस्थल पर स्थित नर-नारायण नामक धाम पर पहुंचे. उस तीर्थ के जल के स्पर्श से ही प्राणी पवित्र हो जाता था.
दक्ष पुत्रों ने स्नान किया और परमपवित्र होकर परमहंस जैसे हो गए. इसके बाद उन्हें पिता का आदेश याद आया तो सृष्टि विस्तार के लिए तप की तैयारी करने लगे.
देवर्षि नारद ने देखा कि परमहंस बन जाने के बावजूद दक्षपुत्र सृष्टि रचना की चिंता कर रहे हैं, ऐसा सोचकर नारद बड़े दुखी हुए. वह दक्ष पुत्रों के पास आए.
नारद ने कहा- दक्ष पुत्रों अभी तो तुमने इस धरा का अंत देखा ही नहीं है फिर क्यों सृष्टि रचना की चिंता से घुले जा रहे हो. तुम लोग नादान नहीं हो फिर ऐसा क्यों करते हो.
नारद ने कहा- जिस पृथ्वी के लिए सृष्टि बसाना चाहते हो पहले उसे जान तो लो. बिना जाने किए गए कार्य के कारण विद्वान लोगों को बाद में पछताना पड़ता है.
नारद की बात हर्यश्वों के मन में बैठ गई. उन्होंने आपस में परामर्श करके पहले पृथ्वी का विस्तार से भ्रमण का निर्णय लिया. संतान पैदा करने की बात को उन्होंने किनारे कर दिया.
अपने पुत्रों को सृष्टि वृद्धि के कार्य से विमुख होता देख दक्ष को बड़ा अफसोस हुआ. उन्होंने आसक्ती के साथ फिर से रमण करके संतान उत्पन्न किया.
दक्ष की संताने फिर से उसी नर-नारायण तीर्थ पर पहुंची. स्नान करके संतान वृद्धि का संकल्प लिया. नारद फिर से आ धमके.
उन्होंने दक्षपुत्रों को समझाया कि तुम्हारे बड़े भाइयों ने संतान पैदा करने के बजाय पृथ्वी के विस्तार का पता लगाने का निश्चय किया, तुम क्यों अज्ञान में भटकते हो.
नारद ने तरह-तरह के तर्क देकर इन दक्ष पुत्रों को भी संतान वृद्धि के कार्य से अलग कर दिया. दक्ष को जब यह बात पता चली तो वह बड़े क्रोधित हुए.
दक्ष ने नारद को शाप दिया- नारद तुमने साधु का वेश धारण कर रखा है लेकिन मन से बड़ा कुटिल है. तुम प्राणियों को उनके उद्देश्य से भटकाने का कार्य कर रहे हो.
तुमने मेरे पुत्रों को भ्रमित करके उन्हें उनके कार्य से रोका और संसार में भटकने को प्रेरित कर दिया है. आज से तुम संसार में एक स्थान पर नहीं टिक पाओगे.
नारदजी ने दक्ष का शाप स्वीकार कर लिया. इसी कारण नारद का घर नहीं बसा और वह एक जगह से दूसरे जगह पर भटकते रहते हैं.
ब्रह्मा ने दुखी दक्ष को शांत कराया और उन्हें फिर से संतान उत्पन्न करने को कहा. इस बार दक्ष को साठ पुत्रियां हुईं.
दक्ष ने अपनी पुत्रियों का विवाह महर्षि कश्यप, धर्म, चंद्रमा, भृगु और अरिष्टनेमि के साथ किया. इनके गर्भ से देवता, असुर, यक्ष-गंधर्व, पशु-पक्षी, वनस्पति और कीट आदि हुए और पृथ्वी जीवों से भर गई.
कल पढ़िए इंद्र द्वारा देवगुरु बृहस्पति का अपमान एवं वृतासुर की कथा.
संकलन व संपादनः प्रभु शरणम्