सतीजी का त्यागकर महादेवजी ने कैलाश पर्वत पर लंबी समाधि ले ली है. सती पति द्वारा परित्यक्त स्त्री की भांति रह रही हैं. उन्हें अपना जीवन व्यर्थ लगता है परंतु कहें तो किससे कहें.

सती ने मन में श्रीरामचंद्रजी का ध्यान किया और उनसे इस देह से मुक्ति का उपाय करने की विनती करती है. लंबी समाधि तोड़ने के बाद महादेव ने नेत्र खोले हैं और श्रीहरि की कथाएं सुनाना आरंभ कर देते हैं.

लगे कहन हरि कथा रसाला। दच्छ प्रजेस भए तेहि काला॥
देखा बिधि बिचारि सब लायक। दच्छहि कीन्ह प्रजापति नायक॥3॥

शिवजी भगवान श्रीहरि की रसमयी कथाएं सुनाने लगे. उसी बीच सती के पिता दक्ष प्रजापति को ब्रह्माजी ने सब प्रकार से योग्य पाकर दक्ष को प्रजापतियों का नायक बना दिया.

बड़ अधिकार दच्छ जब पावा। अति अभिनामु हृदयँ तब आवा॥
नहिं कोउ अस जनमा जग माहीं। प्रभुता पाइ जाहि मद नाहीं॥4॥

जब दक्ष ने इतना बड़ा पद प्राप्त कर लिया, तब उनके हृदय में अत्यन्त अभिमान आ गया. जगत में ऐसा कोई नहीं पैदा हुआ जिसको प्रभुता पाकर अभिमान न हो जाए.

दोहाः
दच्छ लिए मुनि बोलि सब करन लगे बड़ जाग।
नेवते सादर सकल सुर जे पावत मख भाग॥60॥

प्रजापतियों का नायक बनने के बाद दक्ष ने सभी श्रेष्ठ मुनियों को बुलाया और एक विशाल यज्ञ की तैयारी करने लगे. जो देवतागण यज्ञ भाग के अधिकारी हैं, दक्ष ने उन सबको आदर सहित निमन्त्रण भेजा.

चौपाई :
किंनर नाग सिद्ध गंधर्बा। बधुन्ह समेत चले सुर सर्बा॥
बिष्नु बिरंचि महेसु बिहाई। चले सकल सुर जान बनाई॥1॥

प्रजापति दक्ष का निमन्त्रण पाकर किन्नर, नाग, सिद्ध, गन्धर्व और सभी देवता यज्ञ में शामिल होने अपनी-अपनी स्त्रियों के संग चले. श्रीविष्णुजी, श्रीब्रह्माजी और श्रीमहादेवजी को छोड अन्य सभी देवता अपने सजे-धजे विमान में बैठकर चले.

सतीं बिलोके ब्योम बिमाना। जात चले सुंदर बिधि नाना॥
सुर सुंदरी करहिं कल गाना। सुनत श्रवन छूटहिं मुनि ध्याना॥2॥

सतीजी ने आकाश में अनेकों प्रकार के सुंदर-सुज्जित विमानों जाते देखा जिसमें बैठी देवलोक की सुन्दरियां ऐसे मधुर स्वप में गीत गा रही थी जिन्हें सुनकर मुनियों का ध्यान भी भंग हो जाता है.

पूछेउ तब सिवँ कहेउ बखानी। पिता जग्य सुनि कछु हरषानी॥
जौं महेसु मोहि आयसु देहीं। कछु ‍दिन जाइ रहौं मिस एहीं॥3॥

सतीजी ने विमानों में सवार होकर सभी देवताओं को जाते देखा तो इसका कारण पूछा. शिवजी ने दज्ञ प्रजापति के यज्ञ की सब बातें बतलाईं. पिता के यज्ञ की बात सुनकर सती कुछ प्रसन्न हुईं और सोचने लगीं कि यदि महादेवजी मुझे आज्ञा दें, तो इसी बहाने कुछ दिन पिता के घर जाकर रहूं.

पति परित्याग हृदयँ दुखु भारी। कहइ न निज अपराध बिचारी॥
बोली सती मनोहर बानी। भय संकोच प्रेम रस सानी॥4॥

पति द्वारा त्याग दिए जाने के कारण सती का हृदय दुख से जल रहा था लेकिन इसे वह अपना अपराध समझकर कुछ कहती न थीं. आखिरकार सतीजी भय, संकोच और प्रेमरस में सनी हुई मनोहर वाणी से बोलीं-

दोहा :
पिता भवन उत्सव परम जौं प्रभु आयसु होइ।
तौ मैं जाउँ कृपायतन सादर देखन सोइ॥61॥

हे प्रभो! मेरे पिता के घर ऐसा विशाल उत्सव हो रहा है. हे कृपाधाम! यदि आपकी अनुमति हो तो मैं आदर सहित उस महान उत्सव को देखने जाऊँ.

चौपाई :
कहेहु नीक मोरेहूँ मन भावा। यह अनुचित नहिं नेवत पठावा॥
दच्छ सकल निज सुता बोलाईं। हमरें बयर तुम्हउ बिसराईं॥1॥

शिवजी कहते हैं- सती आपकी बात तो सुंदर हैं, यह मुझे भी पसंद आई पर प्रजापति ने हमें न्योता नहीं भेजा है इसलिए वहां जाना अनुचित है. दक्ष ने अपनी सभी पुत्रियों को बुलाया किन्तु हमारे बैर के कारण उन्होंने तुम्हें भी भुला दिया है.

प्रारब्ध कहें या प्रभु की लीला. महादेव अपनी समाधि उसी समय भंग करते हैं जब दक्ष प्रजापति ने यज्ञ का आयोजन किया है और समस्त देवगण आदि पूरी तैयारी और उल्लास के साथ उस यज्ञ में सम्मिलित होने जा रहे हैं.

पति द्वारा त्याग दी गई स्त्री के मन में बड़ा भारी दुख रहता है. सती को लगता है कि पति के उपरांत पिता का भी अधिकार होता है. यदि वह कुछ समय के लिए पिता के घर चली जाएं तो मन की वेदना कुछ घटे. वह स्वामी से अनुमति मांगती हैं किंतु दक्ष का निमंत्रण नहीं आया है इसलिए महादेव वहां जाना उचित नहीं समझते.

संकलनः राजन प्रकाश

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