तुलसीदासजी श्रीराम नाम के जप की महिमा बताते हुए कहते हैं कि यह सभी तत्व ज्ञान, सिद्धि, भोग और मोक्ष को प्रदान करने वाला है. कलियुग में इसके अतिरिक्त कोई मार्ग ही नहीं. इसकी महिमा वर्णन के बाहर और ब्रह्मसुख देने वाली है.
चौपाई :
नाम जीहँ जपि जागहिं जोगी। बिरति बिरंचि प्रपंच बियोगी॥
ब्रह्मसुखहि अनुभवहिं अनूपा। अकथ अनामय नाम न रूपा॥1॥
भावार्थ:-ब्रह्मा के बनाए हुए इस प्रपंच (दृश्य जगत) से भलीभाँति छूटे हुए वैराग्यवान् मुक्त योगी पुरुष इस नाम को ही जीभ से जपते हुए (तत्व ज्ञान रूपी दिन में) जागते हैं और नाम तथा रूप से रहित अनुपम, अनिर्वचनीय, अनामय ब्रह्मसुख का अनुभव करते हैं.
जाना चहहिं गूढ़ गति जेऊ। नाम जीहँ जपि जानहिं तेऊ॥
साधक नाम जपहिं लय लाएँ। होहिं सिद्ध अनिमादिक पाएँ॥2॥
भावार्थ:- जो परमात्मा के गूढ़ रहस्य को जानना चाहते हैं, वे जिज्ञासु भी नाम को जपकर उसे जान लेते हैं. लौकिक सिद्धियों की अभिलाषा रखने वाले साधक लौ लगाकर नाम का जप करते हैं और अणिमा आदि आठों सिद्धियों को प्राप्तकर सिद्ध हो जाते हैं.
जपहिं नामु जन आरत भारी। मिटहिं कुसंकट होहिं सुखारी॥
राम भगत जग चारि प्रकारा। सुकृती चारिउ अनघ उदारा॥3॥
भावार्थ:- संकट में फंसे भक्त यदि श्रीराम नाम का जप करते हैं तो उनके बड़े भारी संकट कट जाते हैं और वे सुखी हो जाते हैं. श्रीराम के प्रति भक्ति रखने वाले जगत में चार प्रकार लोग हैं और रामनाम के प्रभाव से चारों ही पुण्यात्मा, पापरहित और उदार हैं.
धन की चाह से रामनाम भजने वाले अर्थार्थी, संकट काटने के लिए प्रार्थना करने वाले, भगवान को जानने की इच्छा से भजने वाले जिज्ञासु और भगवान को तत्व से जानकर स्वाभाविक प्रेम से भजने वाले ज्ञानी रामभक्त, जो श्रीराम की शरण में है उसकी सारी अभिलाषाएँ पूरी होती हैं.
चहू चतुर कहुँ नाम अधारा। ग्यानी प्रभुहि बिसेषि पिआरा॥
चहुँ जुग चहुँ श्रुति नाम प्रभाऊ। कलि बिसेषि नहिं आन उपाऊ॥4॥
भावार्थ:-चारों ही चतुर भक्तों को नाम का ही आधार है. इनमें ज्ञानी भक्त प्रभु को विशेष रूप से प्रिय हैं. यों तो चारों युगों में और चारों ही वेदों में नाम का प्रभाव है परन्तु कलियुग में विशेष रूप से है. कलियुग में रामनाम को छोड़कर दूसरा कोई उपाय ही नहीं.
दोहा :
सकल कामना हीन जे राम भगति रस लीन।
नाम सुप्रेम पियूष ह्रद तिन्हहुँ किए मन मीन॥22॥
भावार्थ:- जो सब प्रकार की (भोग और मोक्ष की भी) कामनाओं से रहित और श्रीरामभक्ति के रस में लीन हैं, उन्होंने भी नाम के सुंदर प्रेम रूपी अमृत के सरोवर में अपने मन को मछली बना रखा है. वे रामनाम रूपी सुधा का निरंतर पान करते रहते हैं और क्षणभर भी उससे अलग होना नहीं चाहते.
चौपाई :
अगुन सगुन दुइ ब्रह्म सरूपा। अकथ अगाध अनादि अनूपा॥
मोरें मत बड़ नामु दुहू तें। किए जेहिं जुग निज बस निज बूतें॥1॥
भावार्थ:- निर्गुण और सगुण ब्रह्म के दो स्वरूप हैं. ये दोनों ही अकथनीय, अथाह, अनादि और अनुपम हैं. मेरी समझ में नाम इन दोनों से बड़ा है, जिसने अपने बल से दोनों को अपने वश में कर रखा है.
प्रौढ़ि सुजन जनि जानहिं जन की। कहउँ प्रतीति प्रीति रुचि मन की॥
एकु दारुगत देखिअ एकू। पावक सम जुग ब्रह्म बिबेकू॥2॥
उभय अगम जुग सुगम नाम तें। कहेउँ नामु बड़ ब्रह्म राम तें॥
ब्यापकु एकु ब्रह्म अबिनासी। सत चेतन घन आनँद रासी॥3॥
भावार्थ:- सज्जन पुरुष इस बात को मुझ दास की ढिठाई या केवल काव्योक्ति न समझें. मैं अपने मन के विश्वास, प्रेम और रुचि की बात कहता हूँ. निर्गुण और सगुण दोनों प्रकार के ब्रह्म का ज्ञान अग्नि के समान है.
निर्गुण उस अग्नि के समान है सो सामने दिखती नहीं लेकिन काठ यानी लकड़ी के अंदर समाई हुई है. सगुण उस अग्नि के समान है, जो प्रत्यक्ष रूप से दिखती है. वस्तुतः दोनों एक ही हैं. बस प्रकट-अप्रकट के भेद से भिन्न मालूम होती हैं.
इसी प्रकार निर्गुण और सगुण तत्त्वतः एक ही हैं. इतना होने पर भी दोनों ही जानने में बड़े कठिन हैं, परन्तु नाम से दोनों सुगम हो जाते हैं. इसी से मैं नाम को निर्गुण ब्रह्म से और सगुण राम से बड़ा समझता हूं. ब्रह्म व्यापक है, एक है, अविनाशी है, सत्ता, चैतन्य और आनन्द की घन राशि है.
अस प्रभु हृदयँ अछत अबिकारी। सकल जीव जग दीन दुखारी॥
नाम निरूपन नाम जतन तें। सोउ प्रगटत जिमि मोल रतन तें॥4॥
भावार्थ:- ऐसे विकाररहित प्रभु के हृदय में रहते भी जगत के सब जीव दीन और दुःखी हैं. नाम का निरूपण करके यानी नाम के यथार्थ स्वरूप, महिमा, रहस्य और प्रभाव को जानकर श्रद्धापूर्वक नामजप से वही ब्रह्म ऐसे प्रकट हो जाता है, जैसे रत्न के जानने से उसका मूल्य.
दोहा :
निरगुन तें एहि भाँति बड़ नाम प्रभाउ अपार।
कहउँ नामु बड़ राम तें निज बिचार अनुसार॥23॥
भावार्थ:- इस प्रकार निर्गुण से नाम का प्रभाव अत्यंत बड़ा है. अब अपने विचार के अनुसार कहता हूं कि श्रीराम का नाम सगुण राम से भी बड़ा है.