कल के प्रसंग से आगे…

याज्ञवल्क्यजी भरद्वाज मुनि को प्रयाग भूमि में श्रीराम कथा की महिमा का अमृतमय वर्णन आरंभ करते हैं.

रामकथा ससि किरन समाना। संत चकोर करहिं जेहि पाना॥
ऐसेइ संसय कीन्ह भवानी। महादेव तब कहा बखानी॥4॥

भावार्थ: श्रीरामजी की कथा चंद्रमा की किरणों के समान है उज्जवल और शीतल है जिसका पान संत रूपी चकोर सदा किया करते हैं. सती को श्रीराम पर संदेह हुआ तो महादेवजी ने विस्तार से उसका उत्तर दिया था.

चकोर स्वाति नक्षत्र की प्रतीक्षा में आसमान की ओर टकटकी लगाए रहती है. उस समय चंद्रमा से अमृत की जो बूंदें टपकती हैं उसे ग्रहण करने से ही उसका कल्याण होता है. ऐसे ही संत रामकथा की आस में व्याकुल रहते हैं.

दोहा :
कहउँ सो मति अनुहारि अब उमा संभु संबाद।
भयउ समय जेहि हेतु जेहि सुनु मुनि मिटिहि बिषाद॥47॥

भावार्थ- ऋषि याज्ञवल्क्य भरद्वाज मुनि से कहते हैं, अब मैं अपनी बुद्धि के अनुसार उमा और शिवजी के संवाद की बात कहता हूं. वह जिस समय और जिस हेतु से हुआ, उसे हे मुनि! तुम सुनो. इसे सुनने से तुम्हारा विषाद मिट जाएगा.

चौपाई :
एक बार त्रेता जुग माहीं। संभु गए कुंभज रिषि पाहीं॥
संग सती जगजननि भवानी। पूजे रिषि अखिलेस्वर जानी॥1॥

भावार्थ:- एक बार त्रेता युग में शिवजी अगस्त्य ऋषि के पास गए. उनके साथ जगज्जननी भवानी सतीजी भी थीं. ऋषि ने संपूर्ण जगत्‌ के ईश्वर जानकर महादेव और भवानी का पूजन किया.

रामकथा मुनिबर्ज बखानी। सुनी महेस परम सुखु मानी॥
रिषि पूछी हरिभगति सुहाई। कही संभु अधिकारी पाई॥2॥

भावार्थ:- मुनिवर अगस्त्यजी ने रामकथा विस्तार से कही, जिसको महेश्वर ने सुखदायी मानकर आनंदपूर्वक सुना. फिर ऋषि ने शिवजी से सुंदर हरिभक्ति पूछी. शिवजी ने अगस्त्य को इसके योग्य मानकर रहस्य सहित भक्ति का विरूपण किया.

कहत सुनत रघुपति गुन गाथा। कछु दिन तहाँ रहे गिरिनाथा॥
मुनि सन बिदा मागि त्रिपुरारी। चले भवन सँग दच्छकुमारी।।3।।

भावार्थः अगस्त्यजी के पास श्री रघुनाथजी के गुणों की कथाएं कहते-सुनते कुछ दिनों तक शिवजी वहां रहे. फिर मुनि से विदा मांगकर शिवजी, दक्षकुमारी सतीजी के साथ अपने निवास कैलास पर्वत को चले गए.

तेहि अवसर भंजन महिभारा। हरि रघुबंस लीन्ह अवतारा॥
पिता बचन तजि राजु उदासी। दंडक बन बिचरत अबिनासी॥4॥

भावार्थ- उन्हीं दिनों पृथ्वी का भार उतारने के लिए श्रीहरि ने रघुवंश में अवतार लिया था. वह अविनाशी भगवान उस समय पिता के वचन से राज्य का त्याग करके तपस्वी के वेश में दण्डकवन में विचर रहे थे.

दोहा:
हृदयँ बिचारत जात हर केहि बिधि दरसनु होइ।
गुप्त रूप अवतरेउ प्रभु गएँ जान सबु कोइ॥48 क॥

भावार्थ- शिवजी हृदय में विचारते जा रहे थे कि भगवान के दर्शन मुझे किस प्रकार हों. प्रभु ने गुप्त रूप से अवतार लिया है, मेरे जाने से सब लोग जान जाएंगे.

महादेव और श्रीहरि एक दूसरे के परम भक्त हैं. एक दूसरे के बिना उनका हृद्य नहीं लगता. महादेव व्याकुल हैं कि आखिर कैसे दशरशनंदन के रूप में आए श्रीहरि के दर्शन किए जाएं.

सोरठा :
संकर उर अति छोभु सती न जानहिं मरमु सोइ।
तुलसी दरसन लोभु मन डरु लोचन लालची॥48 ख॥

भावार्थ:- श्री महादेवजी के हृदय में इस बात को लेकर बड़ी बेचैनी पैदा हो गई, परन्तु सतीजी इस बात को नहीं जानती थीं. तुलसीदासजी कहते हैं कि शिवजी के मन में इस भेद के खुलने का डर तो था, परन्तु दर्शन के लोभ से उनके नेत्र ललचा रहे थे.

आज का सारांशः महेश्वर भगवान शिव को रामकथा बहुत प्रिय है. प्रभु ने रघुकुल में अवतार लिया था. महादेव तरह-तरह के वेष बनाकर उनके दर्शनों को जा करते थे.

श्रीहरि का यह अवतार गुप्त अवतार था इसलिए महादेव को कई बार श्रीरामजी के दर्शनों के लिए स्वांग करना पड़ता, रूप बदलना पड़ता था. माता सती के साथ वह अगस्त्य ऋषि के पास आए और रामकथा सुनने लगे.

उनके मन में पुनः श्रीराम के दर्शन का आवेग फूटा लेकिन इस बात से थोड़ी चिंता हुई कि कहीं उनके जाने से प्रभु की गोपनीयता भंग न हो जाए और अवतार हेतु में कोई बाधा न आए. इसी चिंता में पड़े महादेव कैलाश लौट गए.

श्रीराम के दर्शन की मन में उत्पन्न हुई अभिलाषा के बाद महादेव ने क्या किया यह प्रसंग कल देखेंगे.

संकलन व संपादनः राजन प्रकाश

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