महादेव श्रीरामचंद्रजी के दर्शन को आए और पास जाकर कुशलक्षेम न पूछा बस जय सच्चिदानंद कहकर अभिवादन किया. देवी सती को यह बात विचित्र लगी कि देवाधिदेव एक साधारण राजकुमार को सच्चिदानंद कह रहे हैं.

महादेव ने उन्हें समझाने का प्रयत्न किया कि जिसे वह साधारण मानव समझ रही हैं वह त्रिलोकेश श्रीहरि हैं, परंतु परमेश्वर की माया से सती तो मतिभ्रम में हैं. महादेव को आशंका हो गई है किंतु वह इसे हरिइच्छा मानते. होना वही है जो श्रीराम ने रच रखा है फिर व्यर्थ को चिंतित क्यों होना.

सोरठा-

लाग न उर उपदेसु जदपि कहेउ सिवँ बार बहु।
बोले बिहसि महेसु हरिमाया बलु जानि जियँ॥51॥

भावार्थ- शिवजी ने बहुत बार समझाया फिर भी सतीजी के हृदय में उनका उपदेश नहीं बैठा. तब महादेवजी मन में भगवान की माया का बल जानकर मुस्कुराते हुए बोले-

चौपाई :
जौं तुम्हरें मन अति संदेहू। तौ किन जाइ परीछा लेहू॥
तब लगि बैठ अहउँ बटछाहीं। जब लगि तुम्ह ऐहहु मोहि पाहीं॥1॥

जो तुम्हारे मन में बहुत संदेह है तो तुम जाकर परीक्षा क्यों नहीं लेती? जब तक तुम मेरे पास लौट आओगी तब तक मैं इसी बड़ की छाँह में बैठा हूँ.

जैसें जाइ मोह भ्रम भारी। करेहु सो जतनु बिबेक बिचारी॥
चलीं सती सिव आयसु पाई। करहिं बेचारु करौं का भाई॥2॥

विवेक का प्रयोग करके सोच-समझकर वह कार्य करो जिसे तुम्हारे मन में आया यह अज्ञानजनित भारी भ्रम भली-भांति मिट सके. शिवजी की आज्ञा पाकर सती चलीं और मन में सोचने लगीं कि आखिर कैसे परीक्षा लूँ जिससे भ्रम मिटे?

इहाँ संभु अस मन अनुमाना। दच्छसुता कहुँ नहिं कल्याना॥
मोरेहु कहें न संसय जाहीं। बिधि बिपरीत भलाई नाहीं॥3॥

इधर शिवजी ने मन में अनुमान लगा लिया कि दक्षकन्या सती अविवेक के कारण अपने कल्याण का त्याग करने वाली हैं. जब मेरे समझाने से भी मन का संदेह दूर नहीं होता. ऐसा मालूम होता है कि अब सती का कुशल नहीं है.

होइहि सोइ जो राम रचि राखा। को करि तर्क बढ़ावै साखा॥
अस कहि लगे जपन हरिनामा। गईं सती जहँ प्रभु सुखधामा॥4॥

जो कुछ राम ने रच रखा है, वही होगा. तर्क करके कौन व्यर्थ की बात बढ़ावे? मन में ऐसा सोचकर शिवजी भगवान्‌ श्री हरि का नाम जपने लगे और सतीजी वहाँ गईं जहाँ सुख के धाम प्रभु श्री रामचंद्रजी थे.

दोहा-
पुनि पुनि हृदयँ बिचारु करि धरि सीता कर रूप।
आगें होइ चलि पंथ तेहिं जेहिं आवत नरभूप॥52॥

भावार्थ- सती ने बार-बार मन में विचारा फिर सीताजी का ही रूप धारण कर लिया और उस मार्ग की ओर आगे-आगे बढ़ने लगीं जिससे उनके मत अनुसार मनुष्यों के राजा रामचंद्रजी चले आ रहे थे.

सती मतिभ्रम में हैं. देवाधिदेव जिन्हें सच्चिदानंद कह रहे हैं उन्हें सती मनुष्यों के राजा से अधिक समझने को तैयार नहीं है. यह वृतांत एक उदाहरण है कि अविवेक बुद्धि पर इतना हावी हो जाता है कि स्वयं परमात्मा के मुख से निकली बात पर अविश्वास होता है.

चौपाई :
लछिमन दीख उमाकृत बेषा। चकित भए भ्रम हृदयँ बिसेषा॥
कहि न सकत कछु अति गंभीरा। प्रभु प्रभाउ जानत मतिधीरा॥1॥

सतीजी के बनावटी वेष को देखकर लक्ष्मणजी चकित हो गए और उनके हृदय में बड़ा भ्रम हो गया. वह बहुत गंभीर हो गए, कुछ कह नहीं सके. धीर बुद्धि लक्ष्मण प्रभु रघुनाथजी के प्रभाव को जानते थे.

सती कपटु जानेउ सुरस्वामी। सबदरसी सब अंतरजामी॥
सुमिरत जाहि मिटइ अग्याना। सोइ सरबग्य रामु भगवाना॥2॥

सब कुछ देखने वाले और सबके हृदय की जानने वाले देवताओं के स्वामी श्रीरामचंद्रजी सती के कपट को जान गए. जिनके स्मरण मात्र से अज्ञान का नाश हो जाता है, वही सर्वज्ञ भगवान श्री रामचंद्रजी हैं.

सती कीन्ह चह तहँहुँ दुराऊ। देखहु नारि सुभाव प्रभाऊ॥
निज माया बलु हृदयँ बखानी। बोले बिहसि रामु मृदु बानी॥3॥

स्त्री स्वभाव का असर तो देखो कि उन सर्वज्ञ भगवान के सामने भी सतीजी छिपाव करना चाहती हैं. अपनी माया के बल को हृदय में बखानकर, श्री रामचंद्रजी हँसकर कोमल वाणी से बोले-

जोरि पानि प्रभु कीन्ह प्रनामू। पिता समेत लीन्ह निज नामू॥
कहेउ बहोरि कहाँ बृषकेतू। बिपिन अकेलि फिरहु केहि हेतू॥4॥

पहले प्रभु ने हाथ जोड़कर सती को प्रणाम किया और पिता सहित अपना नाम बताया. फिर पूछा वृषकेतु शिवजी कहाँ हैं? आप यहाँ वन में अकेली किसलिए फिर रही हैं?

दोहा :
राम बचन मृदु गूढ़ सुनि उपजा अति संकोचु।
सती सभीत महेस पहिं चलीं हृदयँ बड़ सोचु॥53॥

श्री रामचन्द्रजी के कोमल और रहस्य भरे वचन सुनकर सतीजी को बड़ा संकोच हुआ. वे डरती हुई (चुपचाप) शिवजी के पास चलीं, उनके हृदय में बड़ी चिन्ता हो गई.

चौपाई :
मैं संकर कर कहा न माना। निज अग्यानु राम पर आना॥
जाइ उतरु अब देहउँ काहा। उर उपजा अति दारुन दाहा॥1॥

चिंता यह कि मैंने शिवजी का कहना न माना और अपने अज्ञान के कारण श्रीरामचन्द्रजी के विषय में शंका की. अब जाकर मैं शिवजी को क्या उत्तर दूँगी? इसका विचार करते सतीजी के हृदय में भयानक पीड़ा पैदा होने लगी.

संकलनः राजन प्रकाश

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