महादेव के समझाने पर भी सतीजी को विश्वास नहीं है कि श्रीरामचंद्रजी परमात्मा स्वरूप हैं. प्रभु लक्ष्मणजी के साथ वन में घूमकर सीताजी को खोज रहे हैं. श्रीरामजी की परीक्षा लेने सती स्वयं सीताजी का वेष में श्रीराम के सम्मुख आ जाती हैं.
श्रीराम ने उन्हें पहचानकर प्रणाम किया. सतीजी का मतिभ्रम मिटा है. अब वह इस कल्पना से व्यथित हैं कि प्रभु के हृदय को कैसी असह्य पीड़ा हो रही है.
जाना राम सतीं दुखु पावा। निज प्रभाउ कछु प्रगटि जनावा॥
सतीं दीख कौतुकु मग जाता। आगें रामु सहित श्री भ्राता॥2॥
श्रीरामचन्द्रजी ने जान लिया कि सतीजी को दुःख हुआ. तब उन्होंने अपना कुछ प्रभाव प्रकट करके उन्हें दिखलाया. सतीजी ने मार्ग में जाते हुए यह कौतुक देखा कि श्रीरामचन्द्रजी सीताजी और लक्ष्मणजी सहित आगे चले जा रहे हैं.
उन्होंने सीताजी को इसलिए दिखाया ताकि सतीजी श्रीराम के सच्चिदानंदमय रूप को देखें तो उनके मन में वियोग और दुःख की जो कल्पना हुई है, वह दूर हो जाए.
फिरि चितवा पाछें प्रभु देखा। सहित बंधु सिय सुंदर बेषा॥
जहँ चितवहिं तहँ प्रभु आसीना। सेवहिं सिद्ध मुनीस प्रबीना॥3॥
तब उन्होंने पीछे की ओर मुड़कर देखा तो वहां भी भाई लक्ष्मणजी और सीताजी के साथ श्रीरामचन्द्रजी सुंदर वेष में दिखाई दिए. वह जिधर देखती हैं, उधर ही प्रभु श्रीरामचन्द्रजी विराजमान हैं और बड़े सिद्ध मुनीश्वर उनकी सेवा कर रहे हैं.
देखे सिव बिधि बिष्नु अनेका। अमित प्रभाउ एक तें एका॥
बंदत चरन करत प्रभु सेवा। बिबिध बेष देखे सब देवा॥4॥
सतीजी ने अनेक शिव, ब्रह्मा और विष्णु देखे जो एक से एक बढ़कर असीम प्रभाव वाले थे. उन्होंने देखा कि भाँति-भाँति के वेष धारण किए सभी देवता श्री रामचन्द्रजी की चरण वन्दना और सेवा कर रहे हैं.
दोहा :
सती बिधात्री इंदिरा देखीं अमित अनूप।
जेहिं जेहिं बेष अजादि सुर तेहि तेहि तन अनुरूप॥54॥
उन्होंने अनगिनत अनुपम सती, ब्रह्माणी और लक्ष्मी देखीं. जिस-जिस रूप में ब्रह्मा आदि देवता थे, उसी के अनुकूल रूप में उनकी ये सब शक्तियाँ भी थीं.
चौपाई :
देखे जहँ जहँ रघुपति जेते। सक्तिन्ह सहित सकल सुर तेते॥
जीव चराचर जो संसारा। देखे सकल अनेक प्रकारा॥1॥
सतीजी ने जहाँ-जहाँ जितने रघुनाथजी देखे, शक्तियों सहित वहाँ उतने ही सारे देवताओं को भी देखा. संसार में जो चराचर जीव हैं, वे भी अनेक प्रकार के सब देखे.
पूजहिं प्रभुहि देव बहु बेषा। राम रूप दूसर नहिं देखा॥
अवलोके रघुपति बहुतेरे। सीता सहित न बेष घनेरे॥2॥
उन्होंने देखा कि नाना प्रकार के वेष धारण करके देवता प्रभु श्रीरामचन्द्रजी की पूजा कर रहे हैं, परन्तु श्री रामचन्द्रजी का दूसरा रूप कहीं नहीं देखा. सीता सहित श्रीरघुनाथजी बहुत से देखे, परन्तु उनके वेष अनेक नहीं थे.
सोइ रघुबर सोइ लछिमनु सीता। देखि सती अति भईं सभीता॥
हृदय कंप तन सुधि कछु नाहीं। नयन मूदि बैठीं मग माहीं॥3॥
सब जगह वही रघुनाथजी, वही लक्ष्मण और वही सीताजी दिखे- सती ऐसा देखकर बहुत ही डर गईं. उनका हृदय काँपने लगा और देह की सारी सुध-बुध जाती रही. वह आँख मूँदकर मार्ग में बैठ गईं.
बहुरि बिलोकेउ नयन उघारी। कछु न दीख तहँ दच्छकुमारी॥
पुनि पुनि नाइ राम पद सीसा। चलीं तहाँ जहँ रहे गिरीसा॥4॥
फिर आँख खोलकर देखा, तो वहाँ दक्षकुमारी सतीजी को कुछ भी न दिखाई दिखा. तब वे बार-बार श्री रामचन्द्रजी के चरणों में सिर नवाकर वहां चलीं, जहां श्रीशिवजी बैठे थे.
दोहा:
गईं समीप महेस तब हँसि पूछी कुसलात।
लीन्हि परीछा कवन बिधि कहहु सत्य सब बात॥55॥
जब वह महादेव के पास पहुंचीं, तब श्रीशिवजी ने विनोदपूर्वक कहा कि तुमने रामजी की किस प्रकार परीक्षा ली, सारी बातें सच-सच मुझसे कहो.
सतीजी, परीक्षा से व्यथित और फिर श्रीराम के विभिन्न रूपों के दर्शन से पुलकित मन से महादेव के समक्ष पहुंची हैं. महादेव उनसे सारी बातें पूछते हैं तो वह पुनः एक साधारण नारी की तरह महादेव से सारी बातें छुपाना चाहती हैं.
महादेव से कुछ छुपेगा भला! महादेव और सती के बीच संवाद देवाधिदेव और भगवती के बीच संवाद जैसा नहीं, साधारण दंपत्ती के बीच होने वाले संवाद जैसा होता है. इस प्रसंग का रस कल लेंगे.
संकलन व संपादनः राजन प्रकाश