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गौस्वरुपा धरा की करूण पुकार सुनकर सारी देवसभा में सन्नाटा छा गया.
थोड़ी देर के मौन के पश्चात ब्रह्माजी ने कहा-“ मूर दैत्य के अत्याचारों से रक्षा के लिए हमें भगवान श्रीविष्णु की शरण में चलना चाहिए और पृथ्वी के संकट निवारण हेतु प्रार्थना करनी चाहिए.”
उस देवसभा में यक्षराज सूर्यवर्चा भी थे. उनसे एक धृष्टता हो गई. उन्होंने ब्रह्माजी की बात काटने का दुःसाहस कर दिया.
सूर्यवर्चा ने ओजस्वी वाणी में कहा- हे देवगण! मूर दैत्य इतना प्रतापी नहीं जिसका संहार केवल श्रीविष्णुजी ही कर सकें. हर बात के लिए हमें उन्हें कष्ट नहीं देना चाहिए. आप लोग यदि मुझे आज्ञा दें तो मैं स्वयं अकेला ही उसका वध कर सकता हूँ.
सूर्यवर्चा की बात सुनकर ब्रह्माजी बोले- नादान! मैं तेरा पराक्रम जानता हूं. तुमने अभिमानवश इस देवसभा को चुनौती दी है. स्वयं को विष्णुजी के बराबर समझने की भूल करने वाले अज्ञानी! तुम इस देवसभा के योग्य नहीं हो. तुम अभी पृथ्वी पर जा गिरो. राक्षसकुल में जन्म लो.
ब्रह्माजी का क्रोध इतने पर शांत न हुआ. उन्होंने कहा- युद्ध के लिए आतुर यक्ष! पृथ्वी पर एक धर्मयुद्ध के आरंभ के ठीक पहले स्वयं भगवान विष्णु तुम्हारा सिर काटेंगे. राक्षस रूप में तुम उस युद्ध से वंचित रह जाओगे.
सूर्यवर्चा ब्रह्माजी के चरणों में गिरकर क्षमा याचना करने लगा. ब्रह्माजी का क्रोध शांत हुआ.
वह बोले- “वत्स! तूने अभिमानवश देवसभा का अपमान किया है, इसलिए मैं शाप वापस नहीं ले सकता लेकिन इसमें कुछ संसोधन अवश्य कर सकता हूँ.
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