शिवपुराण की कथा ब्रह्माजी अपने पुत्र नारद को सुना रहे हैं. पिछली कथा से आगे,

सती गंधमार्दन पर्वत के ऊपर से सभी देवताओं को अपने-अपने विमान सजाकर जाते देखा. उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ कि ये सब कहां जा रहे हैं. देवी ने अपनी सखी विजया से पूछा कि क्या तुम्हें ज्ञात है कि ये सब कहां जा रहे हैं.

चंद्रमा की पत्नी और सती की बहन रोहिणी से विजया की दोस्ती थी. विजया ने रोहिणी से पूछा तो पता चला कि सब पिता दक्ष के यज्ञ में सम्मिलित होने जा रहा है. विजया ने आकर सब बता दिया.

यह सुनकर सती आश्चर्यचकित रह गईं कि पिता इतना बड़ा यज्ञ कर रहे हैं और देवेश्वर महादेव और पुत्री को ही निमंत्रण नहीं? आखिर पिता द्वारा ऐसे अनादर का क्या कारण हो सकता है? वह महादेव के पास पहुंची और पूछा-

प्रभु मैंने सुना है कि यदि मंगल आयोजन में पुत्री और दामाद शामिल न हों तो अमंगल होता है. फिर आश्चर्य है मेरे ज्ञानी पिता ने ऐसा आचरण कैसे किया. महादेव ने कहा- तुम्हारी बात सही है किंतु द्वेष मे भरे तुम्हारे पिता ज्ञान विमुख हो गए हैं.

सती के पूछने पर भोलेनाथ बोले- तुम्हारे पिता ने प्रयाग में हुए एक पुराने विवाद का प्रतिशोध लेने के लिए ही यज्ञ का आयोजन किया है. वह मुझे यज्ञभाग के वंचित सिद्ध करना चाहते हैं. किंतु कोई चिंता नहीं. उनको जो उचित लगे करने दो.

सती को इस पर बड़ा क्रोध आया. वह कहने लगीं- मेरे पिता इतने बड़े प्रजापति और अहंकारी हो गए कि देवेश्वर का अपमान कर रहे हैं. जिनके आह्वान से यज्ञ पूर्ण होते हैं. उनका अनादर करके यज्ञ कैसे पूर्ण होगा. मुझे यही देखने पिता के पास जाना है.

सती के मन में क्रोध आया था. वह दक्ष से बहुत सारे प्रश्न करना चाहती थीं. वह देखना चाहती थीं कि शिवजी के अभाव में कौन-कौन से देव यज्ञभाग ग्रहण कर रहे हैं. कौन से ऋषि यह यज्ञ संपन्न करा रहे हैं. सती जाने का हठ करने लगीं.

शिवजी ने समझाया- यद्यपि इसमें संदेह नहीं कि मित्र, स्वामी, पिता और गुरु के घर जाने के लिए निमंत्रण की आवश्यकता नहीं फिर भी ऐसे स्थान पर नहीं जाना चाहिए जहां जाने से किसी को प्रसन्नता न हो. ऐसे घर जाने से कल्याण नहीं होता.

शिवजी ने भवानी को बहुत प्रकार से समझाया. पर होनी का प्रभाव ऐसा कि सती के हृदय में बोध नहीं हुआ. शिवजी ने पुनः कहा कि यदि तुम बिना बुलाए जाओगी तो हमारी समझ में यह अच्छी बात न होगी. आप वहां न जाएं. आपका अपमान होगा.

शिवजी ने बहुत प्रकार से कहकर देख लिया किन्तु सती पिता के यज्ञ में जाने से किसी प्रकार भी नहीं रुकीं. तब त्रिपुरारि महादेवजी ने अपने मुख्य गणों के साथ उन्हें विदा कर दिया.

भवानी जब अपने पिता प्रजापति दक्ष के घर पहुंची, तब दक्ष के डर के मारे किसी ने उनकी आवभगत नहीं की बस उनकी माता आदरपूर्वक उनसे मिलीं. बहिनें बहुत मुस्कुराती हुई मिलीं.

दक्ष ने तो उनका कुशल तक न पूछा. सतीजी को देखकर उलटे उनके सारे शरीर में जैसे आग लग गई हो. तब सती ने जाकर यज्ञ देखा तो वहां कहीं शिवजी का भाग दिखाई नहीं दिया.

सतीजी को शिवजी की बात समझ में आने लगी. स्वामी का अपमान देखकर सती का हृदय जल उठा. पति द्वारा परित्याग के दुःख ने उनके हृदय में उतनी वेदना नहीं दी थी जितना बड़ा दुःख इस समय उन्हें यज्ञ में पति के हो रहे अपमान के कारण हुआ.

वह दक्ष से बोलीं- किस मूर्ख ने आपको यह सुझाव दिया कि शिव का अनादर करके यज्ञ री सफलता का सुझाव दिया. आश्चर्य है कि ब्रह्मा, विष्णु, इंद्रादि देवताओं, ऋत्विजों औऱ मुनियों की बुद्धि भी कैसे भ्रषdट हो गई?

सती द्वारा सबका इस तरह अपमान होते देख दक्ष से न रहा गया. वह बोले- तुम विक्षिप्त हो गई हो. अकुलीन और अप्रिय छवि वाले व्यक्ति के साथ रहकर तुम भी मर्यादाहीन हो गई हो. अच्छा हुआ जो तुम्हें निमंत्रण नहीं दिया. बिना बुलाए क्यों आई तुम?

यद्यपि जगत में अनेक प्रकार के दारुण दुःख हैं फिर भी, कुल अपमान सबसे बढ़कर और कष्टदायक है. यह समझकर सतीजी को बड़ा क्रोध हो आया. सतीजी हृद्य विदीर्ण हो गया. वह किस मुख से पति को सुनाएंगी कि यज्ञ में क्या हुआ.

सतीजी को शिवजी का अपमान सहा नहीं गया. क्रोध से पूरी सभा को डांटते हुए बोलीं- देवों और सब मुनीश्वरो सुनो. जिन लोगों ने यहां शिवजी की निंदा की या सुनी है, उन सबको उसका फल तुरंत ही मिलेगा और मेरे पिता दक्ष भी इस कार्य के लिए बहुत पछताएंगे.

जहाँ संत, शिवजी और लक्ष्मीपति श्री विष्णु भगवान की निंदा की जा रही हो वहां यदि अपना वश चले तो उस निंदा करने वाले की जीभ काट लेनी चाहिए या फिर कान बंदकर वहाँ से भाग जाना चाहिए.

फिर उन्होंने दक्ष से कहा- मुझे यह शरीर आपने ही दिया है. इसी शरीर ने शिव का अपमान सुना है. सो मैं यह शरीर त्यागती हूं. इतना कहकर सती ने योग से अग्नि प्रज्ज्वलित कर अपना शरीर भस्म कर लिया.

इसलिए चन्द्रमा को अपने सुंदर ललाट पर धारण करने वाले वृषकेतु शिवजी को हृदय में धारण करके मैं इस शरीर का तत्काल त्याग करती हूं. ऐसा कहकर सतीजी ने योगाग्नि में अपना शरीर भस्म कर डाला. सारी यज्ञशाला में हाहाकार मच गया.

यह देखकर शिवगण क्रोधित होकर दक्ष पर लपके किन्तु भृगुजी ने यज्ञ की अग्नि से यज्ञ रक्षक उत्पन्न किए जिन्होंने शिवगणों को खदेड़ दिया. शिवजी को अहित की सूचना मिली.

(शिव पुराण रूद्र संहिता, सती खंड-2) क्रमशः जारी….

संकलन व संपादनः राजन प्रकाश

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