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यह बताने के बाद सूतजी बोले- हे विप्रजन निःसंदेह विभिन्न प्रकार के पुष्प विशेष संख्या में अर्पित करने के विशेष लाभ हैं परंतु मूल तत्व है श्रद्धा. श्रद्धापूर्वक ऋतुओं में सुलभ होने वाले पुष्पों के समर्पण से भी अभीष्ट लाभ प्राप्त होता है.
यदि किसी गृहस्थ को ऐसा अनुभव होने लगे कि अकारण ही उसका शरीर उचाट होने लगा है, उसका अपने प्रियजनों के साथ संबंधों में मधुरता कम होने लगी है, उसके शारीरिक कष्टों में वृद्धि होने लगी है अथवा कलह बढ़ने लगा है तो उस व्यक्ति को दूध से शिवलिंग का अभिषेक करना चाहिए.
शिवलिंग पर शर्करायुक्त दुग्ध की धारा प्रवाहित करने से सभी दुख-क्लेश, संताप आदि बह जाते हैं.
शत्रुओं से प्रतिशोध लेने की कामना हो तो शिवलिंग पर तेल की धारा से अभिषेक करना चाहिए.
सरसों के तेल से अभिषेक करने पर शत्रुनाश निश्चित है.
इक्षुरस, मधु, गंगाजल तथा पुष्प-चंदन आदि से सुवासित जलधारा देने से अभीष्ट लाभ होता है.
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इसके बाद सूतजी ने कहा- ऋषियों, ब्रह्माजी ने जब नारदजी को यह सब ज्ञान दिया तो वह अत्यंत प्रसन्न हो गए. नारदजी ने आभार प्रकट करते हुए कहा- आपने शिवजी की परम पवित्र कथा सुनाकर मुझ पर भारी उपकार किया है.
यह रहस्य दुर्लभ है जिसे जानने के बाद मैं स्वयं को अत्यंत निर्मल व पवित्र महसूस कर रहा हूं. किंतु हे परमपिता मेरे मन में एक संदेह भी साथ-साथ उत्पन्न हुआ है. आप उसका भी निराकरण कर मेरा कल्याण करें.
ब्रह्मा ने कहा-पुत्र शिवतत्व है ही ऐसा, जो इसे जानता, सुनता या समझता है वह स्वयं को अत्यंत पवित्र और शिवलीन अनुभव करने लगता है. उसके मन को शांति मिलती है. तुम अपना संशय भी कहो. मैं उसे दूर करने का प्रयास करूंगा.
नारदजी ने पूछा- हे परमपिता जब भगवान शिव लिंग स्वरूप अग्निपुंज में आपके और श्रीहरि के समक्ष प्रकट हुए तो आपने उस शिवलिंग का ऊपरी छोर खोजने के लिए हंस का रूप क्यों लिया और श्रीहरि ने वाराह या शूकर का रूप क्यों धरा. इसका मर्म मैं नहीं समझ पा रहा हूं. कृपया बताएं.
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