पिछली कथा में आपने पढ़ा कि द्रोपदी के रूप पर रीझे दो दैत्यों ने द्रोपदी का हरण करने की योजना बनाई. वे ऋषि बन गए और पांडवों को झूठी कहानी सुनाई कि कोई उनपर अत्याचार कर रहा है. पांडव ऋषियों के शत्रुओं को खोजने निकले तो दैत्य द्रोपदी को लेकर भागा.
अर्जुन ने देख लिया और असुर का पीछाकर उसे पकड़ लिया. अचानक उस दैत्य ने श्रीहरि का रूप धर लिया. अर्जुन के पूछने पर असुर ने बताया कि उसने विष्णुमंदिर की सेवा की थी जिसके परिणामस्वरूप यह रूप धरने का अधिकारी बना.
असुर ने अर्जुन को कहा कि उसके पिछले दो जन्मों का स्मरण हैं. दोनों जन्मों की कथाएं बड़ी रोचक और ज्ञानवर्धक हैं. सभी पांडवों को यह कथा सुननी चाहिए. अर्जुन असुर को लेकर आश्रम में आए. अब आगे…
सभी पांडव इकट्ठा हो गए तो चतुर्भुज स्वरूप वाले भगवान विष्णु जैसे दानव बहुरोमा ने अपने पूर्वजन्मों की कथा आरंभ की. मैं पूर्वजन्म में चंद्रवंशीय राजा जयध्वज था.
मैं राजा होते हुए भी प्रतिदिन विष्णु मंदिर में झाड़ू लगाता था. लीपता, साफ सफाई इत्यादि करता था, रात्रि होने पर दीप जलाने जाता था. मेरे पुरोहित वीतिहोत्र मुझे यह सब कार्य करते देखते तो उन्हें विस्मय होता.
एक दिन उन्होंने मुझसे पूछ ही लिया- राजा होकर भी विष्णु मंदिर में झाड़ू लगाने, लीपने और दीप जलाने से निस्संदेह किसी उत्तम फल की प्राप्ति होती है. यदि संभव हो तो उस रहस्य को मुझसे भी कहें.
मैंने कहा- पूर्वजन्म में मैं रैवत ब्राह्मण था. इस प्रकार के ब्राह्मणों को यज्ञ आदि कराने का अधिकार नहीं होता पर मैं पूरी दबंगई से यह सब कराकर भारी दक्षिणा वसूलता था. शेष द्विज ब्राह्मण कुछ बिगाड़ नहीं पाते थे. मुझसे चिढे रहते थे.
मैं वह सारे कर्म करता जो पुरोहितों के लिए प्रतिबंधित हैं. मद्यपान, लूटपाट भी कर लेता था. पराए धन और परस्त्री के प्रति मेरी बड़ी आसक्ति रहती. मेरे पापकर्म देख मेरे बंधु बांधव मुझसे अलग हो गए.
एक रात मैं एक सूने मार्ग से जा रहा था कि मुझे नवयौवना ब्राह्मणी दिखी. यह अत्यंत रूपसी किसी आपात कारणवश कहीं जा रही थी. मेरी कामाग्नि भड़क उठी.
मैंने उसे पकड़ लिया और रमण की इच्छा से सामने एक खंडहर में ले गया. भीतर जाकर पता चला कि यह खंडहर कभी कोई मंदिर रहा होगा जो अब ध्वस्तप्राय था. इस ढह चुके मंदिर की ओर शायद बरसों से कोई नहीं आया होगा.
मैंने प्रसन्न मन हो अपने कुछ वस्त्र उतारे और कपडों के एक हिस्से से उस स्थान को बुहार कर धूल इत्यादि साफ कर दी जहां मैंने उस सुंदरी नवयौवना ब्राह्मणी के साथ रमण का मन बनाया था.
मैं कुछ यत्नकर एक दीपक भी जलाकर एक किनारे रख दिया. रात ज्यादा बीत गई तब खंडहर से आते दीपक के प्रकाश को देखकर नगर की सुरक्षा में तैनात सैनिकों को संदेह हुआ. मुझे उन्होंने पड़ोसी राज्य का जासूस समझकर मेरी हत्या कर दी.
उस मंदिर में कभी पूजा नहीं होती थी. मैंने भोग कर्म के लिए ही वहां झाड़ू लगाया और दीपक जलाया. भले ही भोग कर्म के लिये ही मंदिर में ठहरा पर इससे मेरे सारे पापकर्म तत्काल नष्ट हो गये और मैं बैकुंठ चला गया.
उस जन्म की कथा सुनाने के बाद बहुरोमा बोला- इस प्रकार मैं दिव्यरूप धारणकर स्वर्ग में सौ कल्प तक रहा. इसके बाद चंद्रवंशीय राजा जयध्वज के रूप में जन्म हुआ.
स्वर्ग में रहने के कारण मुझे अपने पूर्वजन्म की सब बातें याद थी इसलिए मैंने मंदिर में झाड़ू लगाने, उसे लीपने और दीपक जलाने का क्रम उस जन्म में भी जारी रखा. अब मैं दानव बहुरोमा क्यों बना वह कथा सुनो.
हे पांडव! राजा जयध्वज के रूप में बहुतेरे पुण्य कर्म किए मेरे सत्कर्मों का प्रतिफल यह मिला कि मुझे न केवल स्वर्गलोक मिला वरन रूद्रलोक भी जाने का अवसर प्राप्त हुआ. मैं यहां सुखपूर्वक रह रहा था कि एक अनहोनी सी घटना घट गयी.
एक बार मैं रुद्र लोक से ब्रह्मलोक की ओर जा रहा था. रास्ते में महर्षि नारद दिखे. नारदजी की उस दिन वेशभूषा कुछ अलग ही दिखी. उन्हें प्रणाम करना तो दूर मुझे अनायास ही हंसी छूट गयी.
मेरी हंसी सुनकर नारद पलटे और बहुत रुष्ट हुए. कुपित स्वर में बोले जा राक्षस बन जा. मैंने इस अपराध की उनसे बहुत क्षमा मांगी और पुराने सत्कर्मों का वास्ता दिया. भगवान श्रीविष्णु के प्रति अपने लगन की दुहाई दी तो वे पसीज गये.
महर्षि नारद ने शाप से मुक्ति की राह बताई- यदि तुम युधिष्ठिर की पत्नी का अपहरण कर रेवा तट पर स्थित मठ को जाओगे तो तुम्हें इस शाप से मुक्ति मिल जाएगी.
बहुरोमा की कथा पूरी होते ही दानव बहुरोमा बना राजा जयध्वज विष्णु लोक को चला गया. इस तरह पापकर्म में लिप्त रहने के बावजूद अनजाने में ही सही जो लोग मंदिर की सेवा करते हैं, रात्रि को दीपक जलाते हैं उन्हें उत्तम फल की प्राप्ति होती है.
(नरसिंह पुराण की कथा)
संकलनः सीमा श्रीवास्तव
संपादनः राजन प्रकाश