एक बार शिव के सेवक रुद्रकिंकर यानी वैताल ने भगवान शंकर का ध्यान करने के बाद महाराज विक्रमादित्य से कहा- राजन! आज आपको मैं एक मनोहर कथा सुनाता हूं. उस कथा से आपने क्या तात्पर्य लिया वह आपको कथा के अंत में बताना होगा.
समृद्ध और सुख सुविधाओं से संपन्न वर्धमान नगर पर रूपसेन नामक राजा राज करता था. राजा था बड़ा धर्मात्मा. उसकी रानी विद्वन्माला भी बड़ी पतिव्रता थी.
एक दिन राजदरबार में वीरवर नामक एक क्षत्रिय आया. गुणी व्यक्ति वीरवर वहां अपनी पत्नी, बेटी एवं पुत्र के साथ नौकरी मांगने के लिए उपस्थित हुआ था.
राजा ने उसकी बातें सुनीं और पाया कि वीरवर एक गुणवान व्यक्ति है और यह राजकीय सेवा के लिए योग्य है. राजा ने उसे नौकरी पर रख लिया.
राजा रूपसेन ने वीरवर का प्रतिदिन का वेतन हजार स्वर्णमुद्राएं निर्धारित कीं और महल के सिंहद्वार पर रक्षक के रूप में उसकी नियुक्ति कर दी. इतना अधिक वेतन पाकर वीरवर भी पूरी क्षमता और तन्मयता से काम करने लगा.
कुछ दिन बाद राजा रूपसेन ने अपने गुप्तचरों से कहा कि वे अपने कौशल का प्रयोग कर वीरवर की आर्थिक स्थिति का पता लगाएं. गुप्तचरों ने पता लगाकर कहा- राजन उसकी आर्थिक स्थिति कोई बहुत अच्छी नहीं है.
राजा को बड़ा अचरज हुआ. वीरवर का वेतन तो मंत्रियों जैसा है. यह उसके परिवार के पोषण के लिए आवश्यक धन से कई सो गुना अधिक है. राजा को कुछ सूझा. उसने गुप्तचरों को फिर से बुलवाया.
इस बार राजा ने गुप्तचरों से चुपचाप यह पता लगाकर बताने को कहा कि आखिर वीरवर इतने पैसों का करता क्या है? गुप्तचरों ने जल्द ही आकर राजा को सूचना दी.
वीरवर अपने धन का अधिकांश भाग यज्ञ, तीर्थों को दान, शिव तथा विष्णु मंदिरों में पूजा-पाठ करने व करवाने में साधू, ब्राह्मण, गरीबों एवं अनाथों को अन्न बांटने में खर्च देता है. इससे जो थोड़ा बहुत बचता है उसी से अपना परिवार चलाता है.
राजा रूपसेन बहुत प्रसन्न हुए. वीरवर अपना धन आमोद-प्रमोद, मदिरापान, जुआ अथवा दूसरे दुर्गुणों पर न खर्च करके उसका सार्थक और धर्म के क्षेत्र में प्रयोग करता है. यह जानकर वीरवर की नियुक्ति स्थायी कर दी.
कुछ और दिन बीते. एक बार आधी रात में बादलों की गड़गड़ाहट के साथ, बिजली चमक रही थी. फिर मूसलाधार पानी बरसने लगा. रूपसेन बारिश का अऩुमान ले रहा था तभी उसे श्मशान की ओर से किसी नारी के रोने की आवाज़ सुनाई दी.
स्त्री जिस तरह बिलख-बिलखकर करुण स्वर में रो रही थी उसे सुनकर राजा से रहा नहीं गया. राजा ने सिंहद्वार पर उपस्थित वीरवर को आदेश दिया कि वह पता लगाए कि आधी रात को किसपर ऐसी विपदा पड़ी है जो इतना करुण क्रंदन कर रहा है.
वीरवर आदेश पाते ही तलवार लेकर श्मशान की ओर चल पड़ा. कुछ उत्सुकता और कुछ इस विचार के साथ कि अकेले गए वीरवर के साथ कोई अनहोनी न हो जाए, छिपते-छिपाते राजा भी उसके पीछे लग लिया.
वीरवर श्मशान में पहुँचा तो देखा कि एक सुंदर स्त्री फूट-फूटकर रो रही है. वीरवर ने पूछा कि आप कौन हैं और आपके रोने का कारण क्या है. मैं आपके लिये क्या कर सकता हूं?
स्त्री ने सुबकते हुए बताया- हे वीर पुरुष मैं इस राज्य की लक्ष्मी- राष्ट्रलक्ष्मी हूं. मुझे पता है कि आज से तीसवें दिन राजा रूपसेन की मृत्यु हो जाएगी. इतने समृद्धशाली नगर के राजा के मर जाने पर मैं तो अनाथ ही हो जाऊँगी.
मुझे चिंता है कि ऐसी स्थिति में कहां जाउंगी. नियति टल नहीं सकती. कोई विकल्प नही दिखता इसलिए मैं रो रही हूं. स्वामीभक्त वीरवर ने घबराकर पूछा राजा की जान बचाने का क्या उपाय हो सकता है.
इस पर देवी ने कहा- तुमने अभी कहा था कि तुम क्या कर सकते हो? सत्य यह है कि इस समस्या के समाधान के लिए तुम ही कुछ कर सकते हो. वीरवर ने कहा- आप वह उपाय बताएं जिससे राजा का जीवन बचाकर उन्हें दीर्घायु किया जा सके.
देवी एक क्षण रुकी फिर बोलीं- यदि तुम अपने पुत्र की बलि श्मशान से लगे इस चंडिका देवी के सामने दे दो तो राजा अगले मास नहीं मरेंगे, सौ साल जीएंगे. क्या तुम तैयार हो? वीरवर उत्तर देने के लिये वहां उपस्थित ही न था.
क्या स्वामीभक्त वीरवर अपने वचन से पीछे हट गया. क्या बालक की बलि देकर राजा की जान बची… यह अगली पोस्ट में कुछ ही देर में पढें.
मित्रों कथा रोचक मगर लंबी थी. सुविधा के लिए इसे हमने दो भागों में बांट दिया. साढ़े सात बजे कथा का अगला और अंतिम हिस्सा देंगे.
संकलनः सीमा श्रीवास्तव
संपादनः राजन प्रकाश