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दूसरे मित्र ने बात सुनी और व्यस्तता का बहाना बनाकर साथ चलने में असमर्थता जता दी. वह निराश हुआ. फिर उसने तीसरे मित्र से पूछा, हालांकि उससे पहले कभी किसी निर्णय में उसका ध्यान भी नहीं आया था उसे.

तीसरा मित्र न केवल साथ चला, बल्कि राजा के सामने अपने मित्र के बचाव के लिए जिरह भी की और दोषमुक्त होने तक उसके साथ बना रहा.

कथा सुनाकर गुरू ने कहा- धन वह वस्तु है जो मनुष्य को परमप्रिय है. मनुष्य उसे हर सुख-दुख का साथी समझने की भूल करता है किंतु मृत्यु के बाद वह किसी काम का नहीं जैसे पहले मित्र ने संकट में साथ छोड़ दिया.

कुटुंब यथासंभव सहायक होते हैं किंतु वे भी तभी तक साथ हैं जब तक शरीर है. वे सिर्फ इस संसार में आपके कष्टों में काम आ सकते हैं, उसके आगे नहीं जैसे दूसरे मित्र ने बहाना बना दिया.

परंतु एक धर्म ही है जो लोक और परलोक दोनों में काम आता है. हर स्थिति में होने वाली दुर्गति से बचाता है. इसलिए वाणी और आचरण दोनों से धर्म की ही रक्षा करनी चाहिए. यही स्थाई सुख-शांति प्रदान कर सकता है.

संकलन व संपादनः राजन प्रकाश

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