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द्रौपदी ने अपने हाथ से स्वादिष्ट भोजन बनाकर उसे खिलाया। पांचों भाई उसकी सेवा में लगे रहे। उस व्यक्ति के चेहरे पर संतोष के भाव तो दिख रहे थे।
भोजन करने के बाद उस व्यक्ति ने ज्यों ही संतुष्ट होकर डकार ली, आकाश की घंटियां गूंज उठीं। यज्ञ की सफलता से सब प्रसन्न हुए।
युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण से पूछा- ‘भगवन, इस यज्ञ में संसार भर से श्रेष्ठ ज्ञानीजन पधारे। उन्होंने भोजन किया और प्रसन्न हुए पर यज्ञ सफल न हुआ। इस निर्धन व्यक्ति में ऐसी कौन सी विशेषता है कि उसके खाने के बाद ही यज्ञ सफल हो सका।’
क्या आपका विशेष कृपापात्र है या कोई और बात है, यह जानने की बड़ी उत्सुकता है।
श्रीकृष्ण ने कहा, ‘धर्मराज, इस व्यक्ति में ऐसी कोई विशेषता नहीं है। मुझे सभी सज्जन प्रिय हैं। यह विशेष रूप से इसलिए प्रिय है क्योंकि यह निर्धन है किंतु उपलब्ध साधनों में भी पूरी तरह धर्मनिष्ठ है। संतोषी पुरुष है।
दरअसल आपने पहले जिन्हें भोजन कराया वे सब तृप्त थे। जो व्यक्ति पहले से तृप्त हैं, उन्हें भोजन कराना कोई विशेष उपलब्धि नहीं है।
जो लोग अतृप्त हैं, जिन्हें सचमुच भोजन की जरूरत है, उन्हें खिलाने से उनकी आत्मा को जो संतोष मिलता है, वही सबसे बड़ा यज्ञ है। वही सच्ची आहुति है। आप ने जब एक अतृप्त व्यक्ति को भोजन कराया तभी देवता प्रसन्न हुए और सफलता की सूचक घंटियां बज गईं।
संसार में जो दीन-हीन, निर्धन, बीमार और संकट में फंसे व्यक्ति की सहायता को आगे आता है वह व्यक्ति मुझे वशेष रूप से प्रिय हो जाता है। मेरे इस अवतार का अर्थ ही यही है।
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