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अब पुजारी रोकर बिहारीजी से विनती करने लगे- प्रभु मैं जानता हूं आपके सम्मुख मैंने झूठ बोलने का अपराध किया. अपने गले में डाली माला पुनः आपको पहना दी. आपकी सेवा करते-करते वृद्ध हो गया.
यह लालसा ही रही कि कभी आपको चढ़ी माला पहनने का सौभाग्य मिले. इसी लोभ में यह सब अपराध हुआ. मेरे ठाकुरजी पहली बार यह लोभ हुआ और ऐसी विपत्ति आ पड़ी है.
मेरे नाथ अब नहीं होगा ऐसा अपराध. अब आप ही बचाइए नहीं तो कल सुबह मुझे फाँसी पर चढा दिया जाएगा.
पुजारी सारी रात रोते रहे. सुबह होते ही राजा मंदिर में आ गया. उसने कहा कि आज प्रभु का शृंगार वह स्वयं करेगा.
इतना कहकर राजा ने जैसे ही मुकुट हटाया तो हैरान रह गया. बिहारीजी के सारे बाल सफ़ेद थे.
राजा को लगा, पुजारी ने जान बचाने के लिए बिहारीजी के बाल रंग दिए होंगे. गुस्से से तमतमाते हुए उसने बाल की जांच करनी चाही.
बाल असली हैं या नकली यब समझने के लिए उसने जैसे ही बिहारी जी के बाल तोडे, बिहारीजी के सिर से खून की धार बहने लगी.
राजा ने प्रभु के चरण पकड़ लिए और क्षमा मांगने लगा. बिहारीजी की मूर्ति से आवाज आई- राजा तुमने आज तक मुझे केवल मूर्ति ही समझा इसलिए आज से मैं तुम्हारे लिए मूर्ति ही हूँ. पुजारीजी मुझे साक्षात भगवान् समझते हैं.
उनकी श्रद्धा की लाज रखने के लिए आज मुझे अपने बाल सफेद करने पड़े व रक्त की धार भी बहानी पड़ी तुझे समझाने के लिए.
यह कहानी किसी पुराण से तो नहीं है लेकिन इसका मर्म किसी पुराण की कथा से कम भी नहीं है. कहते हैं- समझो तो देव नहीं तो पत्थर.
श्रद्धा हो तो उन्हीं पत्थरों में भगवान सप्राण होकर भक्त से मिलने आ जाएंगे.
संकलन व संपादन: राजन प्रकाश
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