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रावण ने ब्रह्माजी से वरदान मांगते कहा भी था कि जब मैं अपनी ही कन्या की इच्छा करूं तब मेरी मृत्यु हो. जल्द ही मैं मंदोदरी की एक कथा भी आपको सुनाऊंगा. उसमें सीता माता के जन्म की अलग कहानी है.

सीता माता असल में किस की पुत्री हैं इन सब सवालों का जवाब देने में हम कहां सक्षम हैं, यह तो प्रभु ही जाने, हम तो बस जो कुछ विद्वानों ने उनकी लीला को धर्म ग्रंथों और पुराणों में बखाना है उसको जस का तस रख सकने भर का ही काम कर सकते हैं. बाकी निर्णय आपका.

रावण ने मनुष्य को हेय दृष्टि से देखा. श्रीहरि और लक्ष्मीजीने मानवरूप धरकर ही उसका संहार किया. उसने वानरों का भी बड़ा माखौल उड़ाया था इसलिए वानर सेना ने उसका कुल नष्ट कर दिया.

किसी को उसके रूप या कुल के आधार पर अधम या हेय नहीं समझना चाहिए. आपको यदि शक्ति और सामर्थ्य प्राप्त होता है तो उस सामर्थ्य को माता भगवती को समर्पित कर देना चाहिए.

फिर उनकी अनुमति से ही उस शक्ति का प्रयोग करना चाहिए. ऋषि-मुनियों ने तप से जो शक्ति प्राप्त की थी वह अतुलित थी लेकिन वे उसका प्रयोग अनायास ही नहीं कर देते थे. वे स्वयं राजाओं देवों आदि की सहायता लेते थे असुरों से रक्षा के लिए, हालांकि वे स्वयंसमर्थ थे.

कोई ऋषि किसी को शाप देता था तो वह शाप उसके जीवनकाल में अर्जित पुण्यों की संगठित शक्ति थी. उस शाप के साथ ही उसकी शक्तियां समाप्त हो जाती थीं और उसे फिर से घोर तप करना होता था.

उनके लिए जो तप था वह सामान्य लोगों के लिए बताए तप से कई गुना ज्यादा होता है. कारण- ईश्वर कहते हैं तुम शक्ति संपन्न थे. तुमने शक्ति का ह्रास किया. उसे फिर से पाने के लिए ज्यादा त्याग चाहिए अन्यथा तुम इसका बार-बार प्रयोग करते रहोगे तो मोक्ष के लिए तप कब करोगे.

विधि का यही विधान है. आप शक्तिशाली हैं तो आपका दायित्व ज्यादा है. आपको तो वह शक्ति ज्यादा सोच-समझकर खर्च करनी है.

संकलन व संपादनः राजन प्रकाश

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