पिछली कथा से आगे…
श्रीहरि और बैकुंठ का त्याग कर महालक्ष्मी पृथ्वी पर एक वन में तपस्या करने लगीं. तप करते-करते उन्होंने अपना शरीर छोड़ दिया. विष्णुजी वराह अवतार का अपना कार्य पूर्णकर बैकुंठ लौटे तो महालक्ष्मी नहीं मिलीं. वह उन्हें खोजने लगे.
श्रीहरि ने उन्हें तीनों लोकों में खोजा किंतु तप करके माता लक्ष्मी ने भ्रमित करने की अनुपम शक्ति प्राप्त कर ली थी. उसी शक्ति से उन्होंने श्रीहरि को भ्रमित रखा. आख़िर श्रीहरि को पता लग ही गया लेकिन तब तक वह शरीर छोड़ चुकीं थी.
दिव्य दृष्टि से उन्होंने देखा कि लक्ष्मीजी ने चोलराज के घर में जन्म लिया है. श्रीहरि ने सोचा कि उनकी पत्नी ने उनका त्याग सामर्थ्यहीन समझने के भ्रम में किया है इसलिए वह उन्हें पुनः प्राप्त करने के लिए अलौकिक शक्तियों का प्रयोग नहीं करेंगे.
महालक्ष्मी ने मानवरूप धरा है तो अपनी प्रिय पत्नी को प्राप्त करने के लिए वह भी साधारण मानवों के समान व्यवहार करेंगे और महालक्ष्मीजी का हृदय और विश्वास जीतेंगे.
भगवान ने श्रीनिवास का रूप धरा और पृथ्वीलोक पर चोलनरेश के राज्य में निवास करते हुए महालक्ष्मी से मिलन के लिए उचित अवसर की प्रतीक्षा करने लगे. राजा आकाशराज निःसंतान थे. उन्होंशने शुकदेवजी की आज्ञा से संतान प्राप्ति यज्ञ किया.
यज्ञ के बाद यज्ञशाला में राजा को हल जोतने को कहा गया. राजा ने हल जोता तो हल का फल किसी वस्तु से टकराया. राजा ने उस स्थान को खोदा तो एक पेटी के अंदर सहस्रदल कमल पर एक कन्या विराज रही थी. वह महालक्ष्मी थीं.
राजा के मन की मुराद पूरी हो गई थी. चूंकि कन्या कमल के फूल में मिली थी इसलिए उसका नाम रखा गया पदमावती. पदमावती नाम के अनुरूप ही रूपवती और गुणवती थी. साक्षात लक्ष्मी का अवतार. पद्मावती विवाह के योग्य हुई.
एक दिन वह बाग में फूल चुन रही थी. उस वन में श्रीनिवास (बालाजी) आखेट के लिए गए थे. उन्होंने देखा कि एक हाथी एक युवती के पीछे पड़ा है और डरा रहा है. राजकुमारी के सेवक भाग खड़े हुए.
श्रीनिवास ने तीर चलाकर हाथी को रोका और पदमावती की रक्षा की. श्रीनिवास और पदमावती ने एक-दूसरे को देखा और रीझ गए. दोनों के मन में परस्पर अनुराग पैदा हुआ. लेकिन दोनों बिना कुछ कहे अपने-अपने घर लौट गए.
श्रीनिवास घर तो लौट आए लेकिन मन पदमावती में ही बस गया. वह पदमावती का पता लगाने के लिए उपाय सोचने लगे. उन्होंने ज्योतिषी का रूप धरा और भविष्य वांचने के बहाने पदमावती को ढूंढने निकले.
धीरे-धीरे ज्योतिषी श्रीनिवास की ख्याति पूरे चोल राज में फैल गई. पदमावती के मन में भी श्रीनिवास के लिए प्रेम हुआ था. वह उनसे मिलने को व्याकुल थी किंतु कोई पता-ठिकाना न होने के कारण उनका मन चिंतित था.
इस चिंता और प्रेम विरह में उन्होंने भोजन-शृंगार आदि का त्याग कर दिया. इसके कारण उसका शरीर कृशकाय होता चला गया. राजा से पुत्री की यह दशा देखी नहीं जा रही थी. वह चिंतित थे. ज्योतिषी की प्रसिद्धि की सूचना राजा को हुई.
राजा ने ज्योतिषी श्रीनिवास को बुलाया और सारी बात बताकर अपनी कन्या की दशा का कारण बताने को कहा. श्रीनिवास राजकुमारी का हाल समझने पहुंचे तो पदमावती को देखकर प्रसन्न हो गए. उनका उपक्रम सफल रहा था.
उन्होंने परदमावती का हाथ अपने हाथ में लिया. कुछ देर तक पढने का स्वांग करने के बाद बोले- महाराज, आपकी पुत्री प्रेम के विरह में जल रही है. आप इनका शीघ्र विवाह करे दें तो स्वस्थ हो जाएंगी.
पदमावती ने अब श्रीनिवास की ओर देखा. देखते ही पहचान लिया. उनके मुख पर प्रसन्नता के भाव आए और वह हंसीं. काफी दिनों बाद पुत्री को प्रसन्न देख राजा को लगा कि ज्योतिषी का अनुमान सही है.
राजा ने श्रीनिवास से पूछा- ज्योतिषी महाराज, यदि आपको यह पता है कि मेरी पुत्री प्रेम के विरह में पीड़ित है तो आपको यह भी सूचना होगी कि मेरी पुत्री को किससे प्रेम है? उसका विवाह करने को तैयार हूं. आप उसका परिचय दें?
श्रीनिवास ने कहा- आपकी पुत्री एक दिन वन में फूल चुनने गई थी. एक हाथी ने उन पर हमला किया तो आपके सैनिक और दासियां भाग खड़ी हुईं. राजकुमारी के प्राण एक धनुर्धर ने बचाए थे.
राजा ने कहा- हां मेरे सैनिकों ने बताया था कि एक दिन ऐसी घटना हुई थी. एक वीर पुरुष ने उसके प्राण बचाए थे लेकिन मेरी पुत्री के प्रेम से उस घटना का क्या तात्पर्य!
श्रीनिवास ने बताया- आपकी पुत्री को अपनी जान बचाने वाले उसी युवक से प्रेम हुआ है. राजा के पूछने पर श्रीनिवास ने कहा- वह कोई साधारण युवक नहीं, बल्कि शंखचक्रधारी स्वयं भगवान विष्णु हैं.
इस समय बैकुंठ को छोड़कर मानव रूप में श्रीनिवास के नाम से पृथ्वी पर वास कर रहे हैं. आप पुत्री का विवाह उनसे करें. मैं इसकी सारी व्यवस्था करा दूंगा. यह बात सुनकर राजा प्रसन्न हो गए कि स्वयं विष्णु उनके जमाई बनेंगे.
श्रीनिवास और पदमावती का विवाह तय हो गया. श्रीनिवास रूप में श्रीहरि ने शुकदेव के माध्यम से समस्त देवी-देवताओं को अपने विवाह की सूचना भिजवा दी. शुकदेव की सूचना से सभी देवी-देवता अत्यंत प्रसन्न हुए.
देवी-देवता श्रीनिवासजी से मिलने औऱ बधाई देने पृथ्वी पर पहुंचे. परंतु श्रीनिवासजी को खुशी के बीच एक चिंता भी होने लगी. देवताओं ने पूछा- भगवन! संसार की चिंता हरने वाले आप इस उत्सव के मौके पर इतने चिंतातुर क्यों हैं?
श्रीनिवासजी ने कहा- चिंता की बात है, धन का अभाव. महालक्ष्मी ने मुझे त्याग दिया इस कारण धनहीन हो चुका हूं. स्वयं महालक्ष्मी ने तप से शरीर त्यार मानवरूप लिया है और पिछली स्मृतियों को गुप्त कर लिया है.
इस कारण उन्हें यह सूचना नहीं है कि वह महालक्ष्मी का स्वरूप है. वह तो स्वयं को राजकुमारी पदमावती ही मानती हैं. मैंने निर्णय किया है कि जब तक उनका प्रेम पुनःप्राप्त नहीं करता अपनी माया का उन्हें आभास नहीं कराउंगा.
इस कारण मैं एक साधारण मनुष्य का जीवन व्यतीत कर रहा हूं और वह हैं राजकुमारी. राजा की पुत्री से शादी करने और घर बसाने के लिए धन, वैभव और ऐश्वर्य की जरूरत है, वह मैं कहां से लाऊं?
स्वयं नारायण को धन की कमी सताने लगी. मानवरूप में आए प्रभु को भी विवाह के लिए धन की आवश्यकता हुई. यही तो ईश्वर की लीला है. जिस रूप में रहते हैं उस योनि के जीवों के सभी कष्ट सहते हैं.
प्रभु को कर्ज लेकर विवाह करना पड़ा. किसने दिया कर्ज और क्या रखी कर्ज की शर्त. किसने दी कर्ज की गारंटी. कथा बड़ी रोचक है. अगले भाग में देखें, कुछ ही देर में.
संकलन व संपादनः राजन प्रकाश