इस भय से वेश्याओं ने सोते हुए धुंधुकारी को दहकते अंगारों से जलाकर मार डाला तथा उसी घर में गढ्ढा खोदकर दफ़ना दिया. अपने कुकर्मों के फल से धुंधुकारी प्रेत बनकर भटकने लगा.
एक दिन गोकर्ण तीर्थों का भ्रमण करते हुए अपने नगर वापस आया तथा उसी पैतृक आवास में रात्रि-विश्राम को रुका. प्रेत योनि में बैठे धुंधुकारी ने भयंकर गोकर्ण को डराने का प्रयास किया.
वह तरह-तरह के स्वांग रचकर और आवाज़े निकालकर गोकर्ण को डराने का प्रयास कर रहा था. गोकर्ण समझ गया कि दुर्गति के कारण कोई जीव प्रेत बना है. उसने कमंडल का जल छिड़ककर प्रेत को शांत कराया.
गोकर्ण ने प्रेत से प्रेम से बातचीत शुरू करते हुए परिचय पूछा. धुंधुकारी फूट-फूटकर रो पड़ा और अपने पापों तथा हत्या की कहानी कह सुनाई.
उसने गोकर्ण से प्रेतयोनि से मुक्ति दिलाने की प्रार्थना की. धुंधुकारी था तो भाई ही, गोकर्ण ने उसकी मुक्ति का प्रयास करने का वचन दे दिया.
गोकर्ण प्रेत योनि से मुक्ति दिलाने के लिए पिंडदान करने के लिए गया चला गया. वहां उसने तर्पण किया और धुंधुकारी की आत्मा की शांति की प्रार्थना की.
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