एक बार भगवान श्रीहरि की मृत्युलोक यानी पृथ्वी पर विचरण की इच्छा हुई तो गरूड़ पर सवार होकर वह विचरण को निकले. लक्ष्मीजी ने कहा कि मैं भी साथ चलूंगी.
भगवान ने उन्हें बैकुंठ में ही निवास करने का अनुरोध किया और बोले कि वह शीघ्र ही आ जाएंगे पर लक्ष्मीजी ने हठ पकड़ ली.
इस पर विष्णुजी बोले- इतना हठ करती हो तो साथ ले चलूंगा पर एक शर्त रहेगी. मैं जो बात पृथ्वीलोक पर कहूं उसका अक्षरशः पालन करना होगा. यदि स्वीकार हो तो आप मेरे साथ चलो.
लक्ष्मीजी ने स्वीकार कर लिया और भगवान विष्णु, लक्ष्मी जी सहित भूमण्डल पर आए. कुछ देर तक भ्रमण करने के बाद एक स्थान पर भगवान विष्णु रूके और लक्ष्मी से बोले- देवी आप यही ठहरें. मैं जब तक वापस न आऊं, आप यहीं प्रतीक्षा करें. मैं अभी दक्षिण दिशा की ओर जा रहा हूं. आप उधर मत देखना.
यह कहकर विष्णुजी चले जाए. लक्ष्मीजी तो स्वभाव से चंचला हैं. उनको कौतुक उत्पन्न हुआ कि आख़िर दक्षिण दिशा में ऐसा क्या है कि प्रभु स्वयं तो गए पर मुझे उधर देखने तक से मना कर दिया. कोई न कोई रहस्य ज़रूर है.
अंततः लक्ष्मीजी से रहा न गया और उन्होंनें रहस्य का पता लगाने का निश्चय किया. लक्ष्मी भी उस दिशा में चल पड़ीं जिधर श्रीहरि गए थे. कुछ ही दूर चलने पर सरसों का खेत दिखाई दिया. वह ख़ूब फूला था. सरसों की शोभा से वह मुग्ध हो गईं.
लक्ष्मीजी ने खेत से सरसो के फूल तोड़े और उससे अपना इच्छानुसार शृंगार किया फिर आगे चलीं. आगे गन्ने का खेत था. लक्ष्मीजी ने खेत से चार गन्ने लिए और उसका रस चूसने लगीं. तभी विष्णुजी वहां आ गए और लक्ष्मीजी को देखकर बड़े क्रोधित हुए.
वह बोले- मैंने तुम्हें इधर आने को मना किया था, पर तुम न मानीं. पहले तुमने वचन तोड़ा फिर तुम किसान के खेत से गन्ने की चोरी का अपराध भी कर बैठीं. यह मृत्यु लोक है. इसलिए तुम भी यहां के विधान में बंधी हो. चोरी के लिए यहां दंड मिलता है.
अब तुम दंडस्वरूप उस किसान की बारह वर्षों तक खूब सेवा करो, इसी से तुम्हारा प्रायश्चित होगा. तुम्हें बारह वर्षों तक यहीं रहना होगा. ऐसा कहकर भगवान उन्हें छोड़कर क्षीरसागर चले गए.
लक्ष्मीजी किसान के घर रहने लगीं. किसान बड़ा निर्धन था. पहले से ही उसके लिए परिवार पालना कठिन था अब लक्ष्मीजी भी आ गईं तो अतिरिक्त बोझ आ गया उस पर. यह देखकर लक्ष्मीजी चिंतित हो गईं.
उन्होंने किसान की पत्नी से कहा- तुम्हारी दरिद्रता दूर करने का मैं एक उपाय बता सकती हूं. यदि उसे करो तो तुम्हारा घर धन-धान्य से पूर्ण हो जाएगा और सुखमय जीवन व्यतीत कर सकोगे.
पहले तो गृहस्वामिनी को लगा कि यह कोई हंसी-ठिठोली कर रही है और इस भाव से दुत्कार दिया फिर विचार आया कि जरा सुन ही लिया जाए कि आखिर ऐसा कौन सा उपाय है इसके पास. सेवा कर तो रही है पर इसका रूप सेविका का है नहीं हो सकता है कोई तंत्र-मंत्र जानती हो.
इसी विचार से उसने तय किया कि लक्ष्मीजी द्वारा बताए उपाय को भी एक बार आजमा कर देखेगी. उसने लक्ष्मीजी से पूछा- बताओ क्या करना है. तुम्हारा उपाय भी करके देखती हूं.
लक्ष्मजी बोलीं- मैं तुम्हें लक्ष्मी देवी की एक मूर्ति बनाकर दूंगी. स्नान कर पहले मेरी बनाई देवी लक्ष्मी का पूजन करो उसके बाद ही रसोई बनाना. तुम जो इच्छा करोगी वह प्राप्त हो जाएगा.
किसान की पत्नी ने लक्ष्मीजी के आदेशानुसार ही किया. उसने अन्न और प्रचुर धन मांगा. पूजा के प्रभाव और लक्ष्मी की कृपा से किसान का घर दूसरे ही दिन से अन्न, धन, रत्न, स्वर्ण आदि से भर गया और लक्ष्मी से जगमग होने लगा. लक्ष्मीजी ने किसान को धन-धान्य से पूर्ण कर दिया.
किसान के 12 वर्ष बड़े आनन्द से कट गए. अब लक्ष्मीजी के विदा होने का समय आ गया था. श्रीहरि उन्हें विदा कराने आए. लक्ष्मीजी जाने को तैयार हुईं पर किसान ने उन्हें विदा करने से इंकार कर दिया.
लक्ष्मीजी का भी उस परिवार से स्नेह हो गया था. वह भी बिना किसान द्वारा विदाई लिए वहां से जाने को तैयार न थीं. अब तो विष्णुजी फंस गए. कैसे ले जाएं अपनी पत्नी को. उन्होंने एक जुगत लगाई.
विष्णुजी जिस दिन लक्ष्मी को लेने आए थे, उस दिन वारुणी पर्व था. भगवान ने लक्ष्मीजी से चार कौड़ियां लीं फिर किसान को वारुणी पर्व का महत्त्व समझाते हुए कहा- तुम सपरिवार गंगास्नान करो. इन कौड़ियों को भी जल में छोड़ देना. जब तक तुम नहीं लौटोगे, तब तक मैं यही प्रतीक्षा करूंगा.
किसान ने वैसा ही किया. वह सपरिवार गंगा स्नान करने के लिए चला. जैसे ही उसने गंगा में कौड़ियां डालीं, वैसे ही चार हाथ गंगा में से निकले और कौड़ियां ले लीं. तब किसान को आश्चर्य हुआ कि वह तो कोई देवी है.
किसान ने गंगाजी से पूछा-‘माता! ये चार भुजाएं किसकी हैं?’
गंगाजी बोलीं- हे किसान! वे चारों हाथ मेरे ही थे. तूने जो कौड़ियां भेंट दी हैं, वे किसकी दी हुई हैं?’
किसान ने बताया- ‘मेरे घर जो स्त्री आई है, उन्होंने ही दी हैं.’
इस पर गंगाजी बोलीं- तुम्हारे घर जो स्त्री आई है वह साक्षात लक्ष्मी हैं और पुरुष विष्णु भगवान हैं. तुम लक्ष्मी को जाने मत देना, नहीं तो पुन: निर्धन हो जाआगे.
यह सुन किसान उलटे पांव घर की ओर भागा. वहां लक्ष्मीजी और विष्णु भगवान जाने को तैयार बैठे थे. किसान ने लक्ष्मीजी का आंचल पकड़ा और बोला- मैं तुम्हें जाने नहीं दूंगा.
तब भगवान ने किसान से कहा- इन्हें कौन जाने देता है, परन्तु ये तो चंचला हैं, कहीं ठहरती ही नहीं, इनको बड़े-बड़े नहीं रोक सके. इनको मेरा शाप था, जो कि 12 वर्ष से तुम्हारी सेवा कर रही थीं. तुम्हारी 12 वर्ष सेवा का समय पूरा हो चुका है.
किसान हठपूर्वक बोला- नहीं अब मैं लक्ष्मीजी को नहीं जाने दूंगा. तुम कोई दूसरी स्त्री यहाँ से ले जाओ.
तब लक्ष्मीजी ने कहा-‘हे किसान! तुम मुझे रोकना चाहते हो तो जो मैं कहूं जैसा करो. कल तेरस है, मैं तुम्हारे लिए धनतेरस मनाऊंगी. तुम कल घर को लीप-पोतकर स्वच्छ करना. रात्रि में घी का दीपक जलाकर रखना और सायंकाल मेरा पूजन करना.
एक तांबे के कलश में रुपया भरकर मेरे निमित्त रखना. मैं उस कलश में निवास करूंगी किंतु पूजा के समय मैं तुम्हें दिखाई नहीं दूंगी. मैं इस दिन की पूजा करने से वर्ष भर तुम्हारे घर से नहीं जाऊंगी. मुझे रखना है तो इसी तरह प्रतिवर्ष मेरी पूजा करना.
यह कहकर वे दीपकों के प्रकाश के साथ दसों दिशाओं में फैल गईं और भगवान देखते ही रह गए. अगले दिन किसान ने लक्ष्मीजी के कथानुसार पूजन किया. उसका घर धन-धान्य से पूर्ण हो गया. इसी भांति वह हर वर्ष तेरस के दिन लक्ष्मीजी की पूजा करने लगा.
तेरस यानी त्रयोदशी की पूजा से किसान की दरिद्रता दूर हुई इसलिए इसे धनतेरस कहा जाने लगा. धनतेरस को इस विधि से पूजन करके इस कथा को समूह में सुनाने से लक्ष्मीजी प्रसन्न होती हैं और धन-धान्य प्रदान करती हैं.