एक बार मुनियों ने एक जुट हो कर ब्रह्मा जी से कहा- भगवन! आप ने कभी कहा था कि आप श्वेतमाधव की पूरी कथा सुनाएंगे. आज हमें वह कथा सुनाइये, हम सब में इसे ले कर बड़ी उत्सुकता है कि श्वेत माधव तीर्थ की स्थापना किसने की.
ब्रह्माजी बोले– सतयुग में श्वेत नाम के एक बलवान राजा थे. वे बड़े बुद्धिमान, शूरवीर, सच्चाई पर चलने वाले और दयालु प्रजा पालक थे. उनके राज में लोग दस हजार वर्षों तक भी जीते थे. कम से कम बालपन में तो कोई मरता ही नहीं था.
राजा श्वेत राज काज इसी तरह चलता रहा कि बहुत बरस बाद एक घटना घटित हुई. राजा श्वेत के राज में ही धर्मधुरंधर धर्मात्मा ऋषि कपाल गौतम रहते थे. उनके एक सुंदर सा पुत्र हुआ.
कपाल गौतम का यह सलोना सा बेटा दाँत निकलने के पहले ही चल बसा. श्वेत के राज में तो यह अनहोनी थी. सो उसे गोद में लेकर ऋषि कपाल गौतम राजा दरबार पहुंचे.
राजा ने ऋषि कुमार को देखा तो उन्हें विश्वास ही नहीं हुआ वे समझे सोया है या फिर अचेत है. जब पता चला कि यह तो चल बसा है तो उन्होंने उसको जीवित करने के लिये प्रार्थना की.
प्रार्थना का कोई असर होते न देख राजा बोले – यदि यमलोक में गये हुए इस बालक को मैं सात दिन के भीतर फिर धरती पर न ला सकूँ तो जलती हुई चिता पर चढ़ जाऊँगा.
यों कहकर राजा ने एक लाख नील कमलों से महादेव जी की पूजा करके उनके मन्त्र का जप किया. भगवान शिव राजा की अत्यंत भक्ति का सम्मान करके पार्वतीजी के साथ प्रकट हुए और बोले – ‘राजन ! मैं तुमपर बहुत प्रसन्न हूँ.
महादेव जी का यह वचन सुनकर राजा श्वेत ने उनकी ओर देखा. भस्म रमाये, कमर में बाघांबर पहने, ललाट पर चन्द्रमा सजाये, विशाल नेत्रों वाले भगवान शिव पर नजर पड़ते ही राजा ने धरती पर लेट कर उन्हें प्रणाम किया.
‘प्रभो ! यदि आप मुझ पर प्रसन्न है, यदि आपकी मुझ पर दया हैं तो काल के वश में पड़ा हुआ यह ब्राह्मण-बालक फिर से जीवित हो जाय. मैंने यही प्रतिज्ञा कर रखी है. मेरे कहे का लाज रख लें प्रभु.
हे महेश! आप इसे जीवन दान दें और इसकी जितनी भी आयु हो वह यह भली भांति पूरी करे, बस इतना कर दें प्रभु. श्वेत की यह बात सुनकर महादेव जी को बड़ी प्रसन्नता हुई .
उन्होंने सब भूतों को भय देनेवाले काल को आज्ञा दी और काल ने मृत्यु के मुख में पड़े हुए उस बालक को जीवित कर दिया. बालक ने किलकारी भरी तो वे पार्वती देवी के साथ अन्तर्धान हो गये.
भगवान शिव की इस कृपा के बाद तो राजा श्वेतु ने हजारों वर्षो तक सहजता के साथ राज्य किया और फिर जब उम्र हो गयी तो सांसारिक धर्म और और वैदिक नियमों का विचार करके सब छोड़ छोड़ भगवान् केशव की आराधना का व्रत लिया.
राजा श्वेत दक्षिण समुद्र के पुरुषोत्तम क्षेत्र में गये और वहां जगन्नाथजी क जो मंदिर था उसी के पास ही एक सुंदर मन्दिर बनवाया और उसमें श्वेतशिला के से बनी भगवान श्वेतमाधव की प्रतिमा की प्रतिष्ठा की.
प्रतिमा स्थापना और पूजन के बाद ब्राह्मणों, दीनों, अनाथों और तपस्वियों को खूब दान दिया और भगवान माधव के सामने साष्टांग प्रणाम कर एक मास तक मौन एवं निराहार रहकर द्वादशाक्षर मन्त्र का जप तथा स्तुति की.
राजा श्वेत के इस प्रकार स्तुति करने पर जगदगुरु श्रीहरि सम्पूर्ण देवताओं के साथ राजा के सामने आये. भगवान ने कहा – ‘राजन ! तुम्हारी बुद्धि बड़ी ही उत्तम है. तुम प्रजा के लिये सोचते हो, प्रसन्न हूँ, कोई उत्तम वर माँगो .
भगवान का वचन सुनकर महाराज श्वेत ने कहा – ‘भगवन ! यदि मैं आपका भक्त हूँ तो मुझे यह उत्तम वरदान दीजिये कि ब्रह्मलोक से भी ऊपर जो अविनाशी वैकुण्ठधाम है वह ही मुझे मिले. आपकी कृपा से मेरी मनोकामना पूरी हो.
श्री भगवान बोले – राजेन्द्र ! तुम सम्पूर्ण लोकों को लाँघकर मेरे लोक में जाओगे. यहाँ तुमने जो कीर्ति प्राप्त की है, वह तीनों लोकों में फैलेगी. मैं सदा ही यहाँ निवास करूँगा. इस तीर्थ को देवता और दानव आदि सब लोग श्वेतगंगा कहेंगे.
विष्णु जी ने कहा, जो कुश के अग्रभाग से भी श्वेतगंगा का जल अपने ऊपर छिडकेगा, वह स्वर्गलोक में जायगा. जो यहाँ स्थापित श्वेतमाधव नाम की प्रतिमा का दर्शन और उसे प्रणाम करेगा, वह मरने पर पद को प्राप्त करेगा.
संकलनः सीमा श्रीवास्तव