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तब श्रीश्यामसुंदर, श्री राधाजी और सखिगण के संग यमुना पुलिन पर अलौकिक प्रकाश के साथ प्रकट हो गए. बाबा प्रभु के उस रूप में डूब गए. उनके नेत्रों से मन से, हृदय से प्रभु की छवि हटती ही न थी.
बस अपनी गुफा में प्रभु का स्मरण कर नाचते गाते, आनंद विभोर रहते. प्रभु ने समझ लिया कि अब यह मेरा स्वरूप हो चुका है. उन्होंने बाबा को अपने धाम बुला लिया.
प्रेत तो प्रतिदिन श्रीकृष्ण के दर्शन करता था किंतु बाबा के तो प्रथम दर्शन में ही प्रभु चरणों में स्थान मिल गया. बाबा ईश्वरभक्त होने के बावजूद भी प्रेत के चरणों में लोट गए थे प्रभु दर्शन की प्राप्ति के लिए. प्रेत में वह प्रेम, वह अटूट विश्वास नहीं था.
ईश्वर में नेह लगाया तो सबकुछ उन्हें समर्पित कर दें. आधी-अधूरी भक्ति तो फिर प्रेतवाली भक्ति ही है जो ईश्वर के प्रत्यक्ष होने पर भी भटकाती रहेगी.
जय श्री राधेकृष्ण!!
संकलनः रीना सैनी
संपादनः राजन प्रकाश
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