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एक कछुआ भगवान विष्णु का बड़ा अनन्य भक्त था. एक बार गंगासागर स्नान को आए कुछ ऋषियों के मुख से उसने श्रीहरि के चरणों की महिमा सुनी. कछुए के मन में प्रभु चरणों के दर्शन की तीव्र इच्छा हुई.
उसने ऋषियों से पूछा कि उसे प्रभु चरणों के दर्शन कैसे हो सकते हैं. ऋषियों ने बताया कि प्रभु के चरणों के दर्शन का सौभाग्य उन्हीं पुण्यात्माओं को मिलता है जिन पर वह प्रसन्न होते हैं.
कछुए पूरी निष्ठा से प्रभु की भक्ति करता था. लेकिन उसे यज्ञ-हवन आदि तो करने आते नहीं थे, इसलिए उसे लगा कि उसकी भक्ति तो पूरी है नहीं. लेकिन जंतु रूप में तो श्रीहरि ने ही भेजा है, इसलिए मेरी क्या गलती!
उसने ऋषियों से पूछा कि प्रभु कहां वास करते हैं? ऋषियों ने कहा- वैसे तो प्रभु सब जगह हैं लेकिन उनका निवास पाताल लोक से भी आगे बैकुंठधाम में है. क्षीर सागर में वह शेषनाग की शय्या पर विराजते हैं.
कछुआ चल पड़ा बैकुंठ लोक की खोज में. बेचारा अपनी धीमी चाल में सदियों का सफर करता आखिरकार पहुंच ही गया, श्रीहरि के धाम.
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