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इंद्र क्षीरसागर के तट पर गये और वहाँ अकस्मात अपने साम्राज्य से भ्रष्ट होने का दुःख बताते हुए बोले- हे लक्ष्मीकान्त प्रभु! मैंने पूर्वकाल में आपकी प्रसन्नता के लिए सौ यज्ञों का अनुष्ठान किया था। उसी के पुण्य से मुझे इन्द्रपद की प्राप्ति हुई थी.

किन्तु इस समय स्वर्ग में कोई दूसरा ही इन्द्र अधिकार जमाये बैठा है। उसने तो न कभी धर्म का अनुष्ठान किया है न यज्ञों का फिर उसने मेरे दिव्य सिंहासन पर कैसे अधिकार जमाया है?’

श्रीभगवान बोले- इन्द्र! वह गीता के अठारहवें अध्याय में से पाँच श्लोकों का प्रतिदिन पाठ करता है। उसी के पुण्य से उसने तुम्हारे उत्तम साम्राज्य को प्राप्त कर लिया है। गीता के अठारहवें अध्याय का पाठ सब पुण्यों का शिरोमणि है। उसी का आश्रय लेकर तुम भी पद पर स्थिर हो सकते हो।

भगवान विष्णु के ये वचन सुनकर इंद्र को संतुष्टि हुई. उन्हें उत्तम उपाय भी मिल गया था. इन्द्र ने ब्राह्मण का वेष बनाया और गोदावरी के तट पर गये। वहाँ उन्होंने कालिका ग्राम नामक उत्तम और पवित्र नगर देखा जहाँ काल का भी मर्दन करने वाले भगवान कालेश्वर विराजमान हैं.

वही गोदावर तट पर एक परम धर्मात्मा ब्राह्मण बैठे थे, जो बड़े ही दयालु और वेदों के पारंगत विद्वान थे। वे अपने मन को वश में करके प्रतिदिन गीता के अठारहवें अध्याय का स्वाध्याय किया करते थे।

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2 COMMENTS

    • आपके शुभ वचनों के लिए हृदय से कोटि-कोटि आभार.
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