देविका नदी में नहाते आरुणि मुनि पर एक बार बाघ ने हमला कर दिया. उनकी रक्षा एक व्याध ने की थी. मुनि के मुख से घबराहट में निकले ऊं नमो नारायणाय सुनकर वह बाघ शापमुक्त होकर विष्णुलोक गया था. (देखें कथा- नारायण मंत्र का प्रभाव)
मुनि आरुणि ने व्याध को जीवन बचाने के लिये आशीर्वाद देकर देविका नदी के तट पर रहकर कठोर तप करने को कहा और चले गये. व्याघ आरुणि की बतायी विधि और मंत्रों के साथ अपने गुरु का ध्यानकर, निराहार रहकर तप करता रहा.
व्याध जब भिक्षा या भोजन का समय आता तो उठकर वृक्ष से गिरी पत्तियां चुनकर खा लेता. एक दिन वह अपने नियम के मुताबिक वृक्ष की पत्ती चुनने के लिए झुका ही था कि आकाशवाणी हुई- यह शाखोट का पेड़ है, इसकी पती मत खा.
व्याध दूसरे पेड़ के नीचे गया तो फिर आकाशवाणी हुई. यह फलां का पेड़ है इसके पत्ते मत खा. वह जिस किसी भी पेड़ के नीचे जाता उसकी पत्ती खाने से मना हो जाता. उसे भूखा ही तप में रत रहना पड़ा. व्याध तप में बैठा था.
तभी महर्षि दुर्वासा वहां पधारे. दुर्वासा ने देखा- व्याध के शरीर में मात्र हड्डियां ही बची हैं जिनपर चमड़े का खोल भर है. पर समूचा शरीर चमक रहा है. उससे ऐसी ज्योति सी निकल रही है जैसे किसी ने दीप जला रखा हो.
व्याध ने दुर्वासा का स्वागत किया. प्रणाम के बाद आदर से आसन देकर बोला- महर्षि मेरे अहो भाग्य जो आप पधारे. अभी श्राद्ध चल रहे हैं, आप अतिथिदेव हैं मैं सूखे पत्ते आदि से श्राद्ध करके आपको तृप्त करना चाहता हूं. अवसर दें.
दुर्वासा ने सोचा-देखूं तो इसका तप किस ऊँचाई तक पहुंचा? इंद्रियां कहां तक वश में हुईं और भवनाएं कितनी पवित्र हैं. परीक्षा लेने के लिये दुर्वासा ने कहा- मैं अतिथि हूं. भूख भी तेज लगी है. मुझे जौ, गेहूं, धान से बने व्यंजन खिलाओ.
व्याध चिंता में पड़ गया. फल कंद तो ठीक पर ये सब चीजें इस जंगल में कहां से लाऊं. वह गहरी चिंता में डूब कर भगवान को याद कर ही रहा था कि एक अद्भुत घटना घटी.
सोने का एक सुंदर पात्र जो सिद्ध अन्नों से पूर्ण था आकाश से धरती पर आ गिरा. व्याध ने उसे उठा लिया और दुर्वासा के पास जा कर बोला- प्रभो, बस इतनी कृपा कीजिये कि मुझे थोड़ा सा समय दीजिये. मैं आपके लायक भिक्षा ले आऊं.
व्याध बाहर गया तो जंगल के अनेक वृक्षों से बहुत से पुरुष निकल आये और सामने अहीरों की एक बस्ती दिखी. थोड़े ही समय में व्याध सहित सारे पुरुषों को ढेर सारी भिक्षा मिल गयी वह भी दिव्यान्नों की.
सब लेकर व्याध अपनी कुटिया में दुर्वासा के पास पहुंचा. दुर्वासा आश्रम में बैठे भोजन की प्रतीक्षा करते मिले. व्याध ने कहा- महर्षि भोजन पवित्र स्थान पर रख दिया है. अब आप अपने पैर धुलें इस आसन पर बैठें तो मैं भोजन परसना शुरू करू.
दुर्वासा ने सोचा कि अब इसके तपोबल की पवित्रता की आखिरी परीक्षा ले ही लेनी चाहिये सो उन्होंने कहा- मैं नदी तक नहीं जा सकता, मेरे पास लोटा भी तो नहीं फिर मैं अपना पैर कैसे धुलूं.
सच तो यह था कि आरुणि के छोड़े गये आश्रम में जिसमें अब व्याध रहता था उसमें भी कोई लोटा, लुटिया या कमंडल जैसा बरतन न था. यह नयी मुश्किल आन पड़ी सो व्याध ने अपने गुरु आरुणि को याद किया.
उन्होंने संकेत दिया कि देविका नदी की शरण में जाओ. व्याध देविका नदी के तट पर जा कर बोला- माता मैं व्याध हूं. जीवन भर पाप ही किये हैं, ब्रह्महत्या का महापाप मुझ पर हजारों बार है. फिर भी आज अपकी शरण आया हूं.
आज मैं संकट में हूं. मां, महर्षि दुर्वासा के पाँव कैसे धुलें. सहायता करो. हो सके तो आप आश्रम में वहां तक चलो जहां महर्षि के चरण हैं. अगले ही क्षण एक लहर आगे बढी और आश्रम के बाहर पांव पसार कर बैठे दुर्वासा का पद पखार गयी.
दुर्वासा ने प्रसन्न होकर भोजन किया. भोजन के बाद दुर्वासा व्याध से बोले- जाओ मेरे आशीर्वाद से तुम वेद, वेदांग, पुराण, ब्रह्मविद्या सब में पारंगत हो जाओ और अब तुम सत्यतपा मुनि के नाम से प्रसिद्ध होगे.
व्याध दुर्वासा के चरणों पर गिर पड़ा. बोला आप धन्य हैं. आपकी आज्ञा सिर आखों पर. पर मैं नीच कुल का व्याध, मैं वेद, पुराण, ब्रह्मविद्या आदि सीखने जानने का अधिकारी कैसे बन सकता हूं. इस शंका का निवारण भी अभी ही कर दीजिये.
दुर्वासा बोले- तुमने निरहार व्रत किया है. तुम्हारे पहले के शरीर के सारे संस्कार और अज्ञान समाप्त हो चुके हैं. अब तुम्हारे इस बिल्कुल नये शरीर में जो पूरी तरह पवित्र है, परमात्मा बस रहे हैं. तुम अभ्यास आरंभ कर दो.
यह कह कर दुर्वासा ने अपनी और अब सत्यतपा ऋषि बन चुके व्याध ने तप की राह पकड़ी. श्रीहरि की कृपा से व्याध को जीवन का उत्तम लक्ष्य मिल चुका था.
संकलनः सीमा श्रीवास्तव
संपादनः राजन प्रकाश