भगवान श्रीहरि माया-मोह से परे हैं. उनकी माया भी हमारी सोच से परे है. एक बार भगवान श्रीहरि का दैत्यो के साथ भीषण युद्ध हुआ. यह युद्ध दस हज़ार वर्षो तक चला.
इतना लंबा युद्ध चलने के कारण प्रभु को थोड़े विश्राम की आवश्यकता हुई. उन्होंने पद्मासन लगाया. धनुष की डोरी चढी हुई थी. उसी अवस्था मैं उन्होंने अपना धनुष टिकाया और उसी के सहारे थोडा झुक गये.
धनुष पर अपना भार रखकर अलसाने लगे तो थके होने के कारण कुछ ही समय मैं उन्हें निद्रा आ गई. उसी दौरान देवताओं में एक यज्ञ की योजना बन रही थी जिसपर मार्गदर्शन के लिए देवता श्रीहरि से मिलने आए.
ब्रह्माजी, शंकरजी , इंद्र, अग्नि, पवन, वरुण, सूर्य, चन्द्र आदि सभी प्रमुख देवगण प्रभु के पास पधारे. यह यज्ञ युद्ध में हुई देवताओ की क्षति को पूर्ण करके देवों और मनुष्यों के कल्याण के निमित्त था. अतः बड़ा आवश्यक था.
परंतु जब सबने देखा कि भगवान श्रीहरि तो योगनिद्रा में पडे हैं. इंद्र आदि देवताओं को चिंता हुई कि अब हमारा कष्ट कैसे दूर हो? इंद्र ने सभी से कहा कि विचार करें कि अब हमें क्या करना चाहिए?
भगवान शंकर ने कहा कि किसी की निद्राभंग करना निषिद्ध आचरण है फिर भी यज्ञ कार्य हेतु इन्हें जगा ही देना चाहिए. जगाया कैसे जाए! योगनिद्रा के स्वामी तो वह स्वयं हैं. वह कैसे अपने स्वामी को विघ्न करने वाला आदेश मानेंगी.
तब ब्रह्माजी ने युक्ति निकाली और वम्री नामक कीडा उत्पन्न किया. विचार था कि यह कीडा धनुष की डोर को काट देगा. फिर धनुष ऊपर की ओर उठेगा और श्रीहरि के आयुध में कंपन से उनकी निद्रा स्वतः ही टूट जाएगी और प्रयोजन सिद्ध हो सकेगा.
ब्रह्माजी ने वम्री को आज्ञा दे दी. वम्री ने कहा- भगवान लक्ष्मीनारायण जगत के आराध्य हैं. भला उनकी निद्रा भंग करके मैं क्यों पाप का भागी बनूं. इस घृणित कार्य से मुझे क्या लाभ?
जगत के प्राणी किसी भी प्रकार का घृणित या पापयुक्त कार्य लोभवश ही करते हैं. अब यदि इससे मेरा कोई निजी काम बनने वाला हो तभी इस कार्य को करूँगा.
तब ब्रह्मा ने लालच दिया- हम तुम्हें यज्ञ भाग दे दिया करेंगे. यज्ञ में जो हविष बाहर गिर जाया करेगा वह तुम्हारा भाग होगा. अत: अब इसे अपना स्वार्थ जानकर हमारा कार्य करो अर्थात श्रीहरि को जगा दो.
ब्रह्माजी के कहने पर वम्री ने उसी क्षण प्रत्यंचा का जो भाग धरती की ओर था उसे खा लिया. प्रत्यंचा की डोरी ढीली पड़ी और बडी ही भयानक ध्वनि हुई. सब ओर अंधकार छा गया. भय से सूर्य का तेज क्षीण हो गया.
सब भयभीत हो उठे अब क्या हो गया. इसी बीच प्रत्यंचा की डोरी के झटके से कटकर श्रीहरि का मस्तक मुकुट कुंडल के साथ उड़ कर अंधकार मैं कहीं खो गया.
जब कुछ शान्ति हुई तब ब्रह्माजी और शंकरजी ने देखा कि श्रीहरि का विग्रह बिना मस्तक के है. यह देख सभी देवता शोकातुर हो चिंता के अथाह सागर मैं डूबने उतराने लगे. प्रभु की यह कैसी माया है, सब यही सोचने लगे.
हे नाथ! आप हम देवताओं को प्राण देने वाले हमारे आराध्य देव हैं. इस प्रकार सब विलाप करने लगे. तब ब्रह्माजी ने कहा- यह असंदिग्ध बात है. यह सब भगवान की प्रेरणा से ही होता है. एक बार इसी प्रकार शिवजी ने भी मेरा मस्तक काट दिया था.
यह सब महामाया की माया है. अब आप सब विद्यास्वरूपिणी, जगतजननी महामाया का चिन्तन करो. वही जगत को धारण करती है. उनका नाम ब्रह्मविद्या भी है. वही प्रकृति हैं, सबमें विराजमान हैं. जितने चर-अचर प्राणी हैं सबकी रक्षक वही हैं.
तब ब्रह्मा ने वेदों को जो देह धारण करके उनके सन्मुख खडे थे, आज्ञा दी कि आप सब प्रकार से भगवती माहामाया का वन्दन करें. वेद महामाया देवी की स्तुति करने लगे.
वेदों ने सुंदर ऋचाओं से भगवती की अद्भुत स्तुति आरंभ की. इस स्तुति से गुणातीत महामाया प्रसन्न हो गईं. उन्होंने सुमधुर वाणी में कल्याण भरी आकाशवाणी की.
देवी ने कहा- देवताओं तुम अपने स्थान पर विराजमान हो जाओ. अब तुम्हें चिंता करने की आवश्यकता नही है. वेदो ने मेरी भली भांति स्तुति की है और मैं आप सब पर अत्यन्त प्रसन्न हूं.
इस जगत मैं कोई भी कार्य अकारण नही होता. अब श्रीहरि के छिन्नमस्तक होने का कारण सुनो. एक समय श्रीहरि अपने लोग में श्रीलक्ष्मीजी के साथ विराजमान थे. लक्ष्मीजी के मुख की ओर देखकर श्रीहरि को अनायास ही हँसी निकल गई.
भगवती ने सोचा कि मेरा मुख श्रीहरि की दृष्टि मैं कुरूप हो गया है. इसी कारण से वह मेरा उपहास कर रहे हैं. इस पर भगवती को क्रोध आ गया. शान्त स्वभाव होने पर भी वे तमोगुण के प्रभाव में हो गईं. महालक्ष्मी के शरीर मैं तामसी शक्तियों का वास हो गया.
उनके मुख से निकल गया- मेरे मुख को देखकर परिहास करने वाला आपका यह मस्तक गिर जाए. यह कहने के बाद महालक्ष्मी व्याकुल हो गईं. श्रीहरि ने कहा- आपके इस वचन के पीछे एक देव कार्य का उद्धेश्य छिपा है. आप दुखी न हों. यह सब मेरी ही माया से हुआ.
देवी ने आगे कहा- देवताओं इसी कारण श्रीहरि का मस्तक क्षार समुद्र में लहरा रहा है. अब इसका दूसरा कारण भी सुनो! अब तुम्हारा कार्य सिद्ध होने वाला है. हयग्रीव नामका दैत्य बहुत शक्तिसंपन्न हो चुका है. आप लोग भी उससे त्रस्त हैं.
सरस्वती नदी के तट पर उसने महान तप किया. संपूर्ण भूषणों से भूषित जो मेरी तामसी शक्ति है उसने उसी का तप किया. वह दैत्य एक हज़ार वर्षो तक तप करता रहा. जिस स्वरूप का उसने ध्यान किया था उसी रूप मैं मैंने उसे दर्शन दिए.
मैंने उससे वर माँगने को कहा. उसने मांगा- मुझे मृत्यु का मुख न देखना पडे. मैं अमर बन जाऊं. मैंने बताया कि जन्मने वाले की मृत्यु निश्चित है. इस मर्यादा को कोई नही तोड़ सकता. इसके अतिरिक्त तुम कुछ भी माँग लो.
तब हयग्रीव ने कहा कि मुझे हयग्रीव से ही म्रत्यु प्राप्त हो. अन्य कोई मुझे मार ना सके. विवश होकर यह वर उसे देना पड़ा. उस वर के प्रभाव से वह स्वयं को अमर समझकर मुनियो और देवों को त्रस्त कर रहा है.
त्रिलोकी में कोई नही है जो उसे मार सके. अत: वरदान के अनुसार ब्रह्मा किसी अश्व का शीश उतारकर श्रीहरि के विग्रह पर जोडें. तब जाकर उस नराधम का अंत होगा. यह बताकर देवी चली गईं. ब्रह्माजी ने घोडे का शीश उतारकर श्रीहरि के विग्रह पर लगाया.
भगवती जगदम्बिका की कृपा से श्री हरि का हयग्रीव अवतार हुआ. उस अभिमानी दैत्य से भगवान हयग्रीव का घोर युद्ध हुआ और श्रीहयग्रीव भगवान ने उसका वध किया.
म्रत्युलोक में रहने वाले जो लोग भगवान के हयग्रीव स्वरूप की इस पुण्यमयी कथा को सुनते हैं वे दुखमुक्त हो जाते हैं. भगवती महामाया का चरित्र परम पवित्र एवं पापों का संहार करने वाला है.
(देवीभागवत महापुराण की कथा)
संकलनः नीतिन पंडित
संपादनः राजन प्रकाश
यह कथा नीतिन पंडित ने फरीदाबाद,हरियाणा से भेजी. नीतिनजी एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में कार्यरत हैंं और धर्म-आध्यात्म में गहरी रूचि रखते हैं.
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