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विप्रवर ! मेरे पूछने पर वानरराज ने आदरपूर्वक कहाः ‘अजापाल! सुनो, इस विषय में मैं तुम्हें प्राचीन वृत्तान्त सुनाता हूँ।यह सामने वन के भीतर जो बहुत बड़ा मन्दिर है, उसकी ओर देखो इसमें ब्रह्माजी का स्थापित किया हुआ एक शिवलिंग है ।पूर्वकाल में यहाँ सुकर्मा नामक एक बुद्धिमान महात्मा रहते थे, जो तपस्या में संलग्न होकर इस मन्दिर में उपासना करते थे।
वे वन में से फूलों का संग्रह कर लाते और नदी के जल से पूजनीय भगवान शंकर को स्नान कराकर उन्हीं से उनकी पूजा किया करते थे ।इस प्रकार आराधना का कार्य करते हुए सुकर्मा यहाँ निवास करते थे। बहुत समय के बाद उनके समीप किसी अतिथि का आगमन हुआ ।सुकर्मा ने भोजन के लिए फल लाकर अतिथि को अर्पण किया और कहाः’विद्वन ! मैं केवल तत्त्वज्ञान की इच्छा से भगवान शंकर की आराधना करता हूँ ।आज इस आराधना का फल परिपक्व होकर मुझे मिल गया क्योंकि इस समय आप जैसे महापुरुष ने मुझ पर अनुग्रह किया है ।
सुकर्मा के ये मधुर वचन सुनकर तपस्या के धनी महात्मा अतिथि को बड़ी प्रसन्नता हुई ।उन्होंने एक शिलाखण्ड पर गीता का दूसरा अध्याय लिख दिया और ब्राह्मण को उसके पाठ और अभ्यास के लिए आज्ञा देते हुए कहाः ‘ब्रह्मन् ! इससे तुम्हारा आत्मज्ञान-सम्बन्धी मनोरथ अपने-आप सफल हो जायेगा ।’ यह कहकर वे बुद्धिमान तपस्वी सुकर्मा के सामने ही उनके देखते-देखते अन्तर्धान हो गये ।
सुकर्मा विस्मित होकर उनके आदेश के अनुसार निरन्तर गीता के द्वितीय अध्याय का अभ्यास करने लगे ।तदनन्तर दीर्घकाल के पश्चात् अन्तःकरण शुद्ध होकर उन्हें आत्मज्ञान की प्राप्ति हुई फिर वे जहाँ-जहाँ गये, वहाँ-वहाँ का तपोवन शान्त हो गया ।उनमें शीत-उष्ण और राग-द्वेष आदि की बाधाएँ दूर हो गयीं ।इतना ही नहीं, उन स्थानों में भूख-प्यास का कष्ट भी जाता रहा तथा भय का सर्वथा अभाव हो गया ।यह सब द्वितीय अध्याय का जप करने वाले सुकर्मा ब्राह्मण की तपस्या का ही प्रभाव समझो ।
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