एक राजकुमार ने बुद्ध से दीक्षा ली. पहले दिन ही वह भिक्षा मांगने गया था. बुद्ध ने जिस द्वार पर भिक्षा के लिए भेजा था वहां उसने भिक्षा मांगी. वहां उसने भोजन किया और लौटकर बुद्ध से कहा- क्षमा करें, वहां मैं दुबारा नहीं जा सकूंगा.

बुद्ध ने पूछा- क्या हुआ? राजकुमार ने विस्तार से बताया- जब मैं भिक्षा के लिए गया तो दो मील का फासला था. रास्ते में मुझे वे भोजन स्मरण आए, जो मुझे पसंद हैं. जब मैं उस द्वार पर गया, तो उस घर की स्त्री ने वही भोजन बनाए थे. मैं हैरान था.

मैंने सोचा, संयोग है लेकिन फिर जब मैं भोजन करने बैठा तो मेरे मन में यह ख्याल आया कि रोज अपने घर में भोजन के बाद दो क्षण विश्राम करता था. आज कौन विश्राम करने को कहेगा!

जब मैं यह सोच रहा था, तभी उस गृहणी ने कहा- भंते, अगर भोजन के बाद दो क्षण विश्राम करेंगे तो मेरा घर पवित्र होगा. तो मैं हैरान हुआ था. फिर भी मैंने सोचा कि यह भी एक संयोग होगा.

फिर मेरे मन में यह ख्याल उठा कि आज न अपनी कोई शय्या है, न कोई पंखा है. दूसरे का छप्पर और दूसरे की दरी, दूसरे की चटाई पर लेटा हूं और तभी उस गृहणी ने कहा- भिक्षु, न शय्या आपकी है, न मेरी है. तब मैं घबरा गया.

अब संयोग बार-बार होने मुश्किल थे. मैंने उस स्त्री को कहा- क्या मेरे विचार तुम तक पहुंच जाते हैं? क्या मेरे भीतर उठने वाले ख्यालों से तुम्हें परिचित हो जाती हो?

उसने कहा- निरंतर ध्यान करते-करते अपने विचार शून्य हो गए हैं इसलिए अब दूसरों के विचार भी दिखायी पड़ते हैं. तब मैं घबरा गया और भागा आया हूं. कल मैं वहां नहीं जा सकूंगा.

बुद्ध ने फिर पूछा तो झेंपते हुए राजकुमार ने बताया- उस सुंदर युवती को देखकर मेरे मन में विकार भी उठे थे. उसने वे भी पढ़ लिए गए होंगे. मैं किस मुंह से वहां जाऊं? कैसे मैं उस द्वार पर दोबारा खड़ा होऊंगा?

बुद्ध ने आदेश दिया- वहीं जाना होगा. यह तुम्हारी साधना का हिस्सा है. मजबूरी थी, उसे दूसरे दिन फिर जाना पड़ा लेकिन दूसरे दिन वही आदमी नहीं जा रहा था. पहले दिन वह सोया हुआ गया था रास्ते पर. पता भी न था कि मन में कौन से विचार चल रहे थे.

दूसरे दिन वह सजग गया क्योंकि अब डर था. वह जब उसके द्वार पर गया, तो क्षणभर ठहरा सीढ़ियां चढ़ने से पहले. अपने को सचेत कर लिया. उसने भीतर आंख गड़ा ली.

बुद्ध ने कहा था- भीतर देखना और कुछ मत करना. इतना ही स्मरण रहे कि अनदेखा कोई विचार न हो. बिना देखे हुए कोई विचार निकल न जाए, इतना ही स्मरण रखना बस.

वह सीढ़ियां चढ़ा, अपने भीतर देखता हुआ. अब उसे अपनी सांस भी दिखायी पड़ने लगी. उसे अपने हाथ-पैर की हरकतें भी दिखाई पड़ने लगीं. उसने भोजन का एक कौर उठाया तो उसे दिखायी पड़ा जैसे कोई और भोजन कर रहा था और वह देखता था.

इस जीत से उसे बड़ी खुशी हुई. फिर वह निरपेक्ष बना भोजन करता रहा. उसके मन में उस समय भोजन के अतिरिक्त कोई अन्य विचार आए ही नहीं. वह खुशी से नाचता हुआ निकला.

जब आप अपने दर्शक स्वयं बनेंगे तो आपके भीतर दो तत्व हो जाएंगे. एक जो क्रियमाण है और दूसरा जो केवल साक्षी है. आपके भीतर दो हिस्से हो जाएंगे, एक जो सारे कर्म करने वाला, दूसरा केवल निगरानी रखने वाला.

व्यक्ति संसार से झूठ बोल सकता है, संसार को ठग सकता है, स्वयं को कभी नहीं. जब तक उसके अंदर बैठी उसकी आत्मा उसके अच्छे-बुरे का दर्पण दिखाती रहती है वह इंसान बना रहता है.

जिस दिन व्यक्ति की आत्मा उसे आइना दिखाना बंद कर देती है समझिए वह हैवान बन चुका है. विचारक बनने से लाभ नहीं है. विचार को समझने वाला, उसको तोल-मोलकर अपनाने वाला बनना चाहिए.

संकलनः भरत शर्मा
संपादनः राजन प्रकाश

यह कथा इंदौर से भरत शर्मा जी ने भेजी.

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