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डर के मारे रानी रोने लगीं. सब नौकर चाकर इकट्ठे हो गए. भगवान् की माया ने सब पर ऐसा पर्दा डाल दिया कि भगवान् गजानन को कोई पहचान ही न पाया. सब ने कहा-बालक तो बड़ा अशुभ जान पड़ता है.
राजा वरेण्य के पास भी तुरंत यह खबर पहुंच गई और वरेण्य भी माया के पर्दे से अछूते न रहे. अशुभ की आशंका से उस बालक को राजा ने शहर से बहुत दूर जंगल के भीतर फेंकवा दिया.
भगवान् गजानन की कृपाशक्ति ने महर्षि पराशर पर कृपा बरसायी. वे उधर से गुजरे और बाल गजानन का दर्शन कर, शरीर के शुभ चिन्हों से जान लिया कि यह शिशु महान है. वे बालक को अपने आश्रम में ले आए.
बालक को पत्नी वत्सला को सौंप दिया तो वे स्नेह के साथ शिशु के पालन में लग गई. पराशर के आश्रम की शोभा साक्षात् भगवान् के निवास करने से निराली हो गई. भगवान् गणेश अनेक प्रकार की बाल-लीलाएं करते हुए नौवें वर्ष में प्रवेश हुए.
भगवान् गजानन को देवताओं की प्रार्थना भी हमेशा याद रही. उन्हें याद था कि दैत्यराज सिंदूरासुर का उद्धार करके देवताओं एवं ऋषि-मुनियों उबारना है. अपने नौवें वर्ष में ही भगवान गणेश ने शौर्यरूप प्रकट किया.
अब तक सभी देवता सिंदूरासुर से बहुत त्रस्त हो चुके थे. उसका अत्याचार असहनीय हो चुका था. आखिरकार सिंदूरवाड़ में जाकर भगवान गणेश ने दैत्यराज सिंदूर को मार ही डाला.
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