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कांतिमती भी वैश्य के यहां दासी का काम करते थी. एक बार वैश्य ने फैसला किया कि वह अश्विन मास की द्वादशी का व्रत रख कर भगवान विष्णु के मंदिर में विधिवत पूजा करेगा.
समय आने पर वैश्य ने सारी तैयारियां कर मंदिर के लिये प्रस्थान किया. तुम दोनों उसके भरोसेमंद नौकर थे सो इसलिये उसने न सिर्फ तुम दोनों को अपने साथ लिया बल्कि पूजा प्रबंध में भी साथ रखा.
जब पूजा समाप्त हो गयी और शाम को वैश्य घर लौटने लगा तो उसने तुम दोनों को जिम्मेदारी दी की तुम लोग भगवान विष्णु के आगे जलाये दीपक को बुझने न दोगे.
तुम दोनों पति पत्नी ने रात भर दीपक के सामने बैठ कर काटा. दीपक को एक क्षण के लिये भी बुझने न दिया. जब तक पूरी तरह सवेरा न हुआ, न उठे. तुम दोनों ने रक्षपाल की भूमिका बहुत ध्यानपूर्वक निभाया.
बहुत काल बाद उम्र पूरी होने पर तुम दोनों थोड़े से ही अंतराल पर मृत्य को प्राप्त हुए. राजा तुम तो महान राजा प्रियव्रत के वहां पैदा हुये, राजकुमार बने और उस जन्म में दासी रही यह कांतिमती भी उस पुण्य के प्रताप से आज तुम्हारी रानी है.
वह दीपक तो वैश्य का था, उसके यत्न और धन से जला था, तुमने तो बस उसको जलते रहने की देखरेख ही की थी. यदि केवल इतने से ही का पुण्य प्रताप यह फल दे सकता है तो जो विष्णु मंदिर में स्वयं दीपक जलाएंगे उनको कितना पुण्य मिलेगा.
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