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कार्तिक के पावन मास में कार्तिक स्नान का उत्सव आरंभ हुआ है. इसमें स्नान-दान की विधियां हम पहले ही बता चुके हैं. कार्तिक मास में स्नान आदि के अलावा कार्तिक माहात्म्य भी सुनना चाहिए. पैंतीस अध्यायों की इस कथा का आज हम आरंभ करते हैं और इसे कार्तिक मास में शृंखलाबद्ध पूर्ण करेंगे.

(कार्तिक माहात्म्य प्रथम अध्याय की कथा)

नैमिषारण्य तीर्थ में श्रीसूतजी महाराज शौनक आदि अठ्ठासी हजार ऋषियों से बोले- अब मैं आपसे कार्तिक मास के माहात्म्य की श्रेष्ठ कथा कहता हूं जिसे सुनकर मनुष्य हर प्रकार के दुखों से छूटकर बैकुंठ को प्राप्त कर लेता है.

सूतजी ने कहा- श्रीकृष्णजी से आज्ञा लेकर नारदजी के चले जाने पर सत्यभामा प्रसन्न होकर बोलीं कि हे नाथ! मेरा जीवन सफल हो गया. मेरे माता-पिता भी धन्य हो गए हैं जो आपकी समस्त रानियों में मैं प्रिय हुई.

मैंने वह कल्पवृक्ष आदि आपके साथ नारदजी को विधिपूर्वक दान में दे दिया था वही कल्पवृक्ष मेरे घर में सदा लहराया करता है. हे स्वामी आप मुझे वह विधि बतलाइए जिसके करने से इस कल्प के बाद भी आप मुझसे विमुख न हों, मुझे प्रेम करते रहें.

सूतजी कथा आगे बढ़ाते हुए कहते हैं- हे ऋषियों! सत्यभामा की बात सुनकर श्रीकृष्ण हंसते हुए उनकी बांह पकड़कर कल्पवृक्ष के नीचे ले गए और कहा कि अपनी समस्त रानियों में से तुम मुझे प्राणों के समान प्रिय हो. कल्पवृक्ष की तुम्हारी इच्छा की पूर्ति के लिए मैं इंद्र से भी युद्ध को तैयार हो गया था फिर क्या तुम्हारे प्रश्नों का उत्तर न दूंगा?

सूतजी बोले- हे ऋषियों मैं आपको वह कथा सुनाता हूं जब भगवान श्रीकृष्ण सत्यभामाजी के साथ गरूड़ पर सवार होकर इंद्र के पास स्वर्गलोक का कल्पवृक्ष मांगने गए और इंद्र ने देने से मना कर दिया तो गरूड़ के साथ इंद्र का घोर युद्ध हुआ था.

सत्यभामा ने भगवान से कहा- हे प्रभु! पूर्वजन्म में मेरा स्वभाव कैसा था, मैं किसकी पुत्री थी, मैंने कौन से दान, व्रत या तप नहीं किए जिसके कारण मुझे मृत्युलोक में जन्म लेना पड़ेगा. मैंने कौन से ऐसे पुण्यकर्म किए थे जिससे आपकी अर्द्धांगिनी हुई और आप गरूड पर सवार होकर मेरे साथ संसार में विचरते हैं.

तब भगवान बोले- हे कांते तुम्हें अपना पूर्वजन्म जानने की इच्छा हुई है तो मैं उसे अवश्य पूरी करूंगा. सतयुग के अंत की बात है. मायापुरी में अत्रिगोत्र में वेदों और यज्ञों को जानने वाला देवशर्मा नामक एक ब्राह्मण रहता था. वह रोज अतिथिसेवा, हवन और भगवान सूर्य की पूजा करता था.

वह सूर्य के समान तेजस्वी हो गया था. उस ब्राह्मण को बुढ़ापे में एक गुणवती नामक कन्या प्राप्त हुई. देवशर्मा ने उसका विवाह चंद्र नामक अपने शिष्य के साथ कर दिया और उसे पुत्र की भांति ही अपने पास रखा.

एक बार दोनों कुशा और यज्ञ के लिए समिधा लेने को हिमालय की तलहटी में पहुंचे. तभी उन्हें एक राक्षस अपनी ओर आता दिखा. उस राक्षस को देखकर दोनों का शरीर शून्य हो गया और वे अपनी रक्षा के लिए कोई उपाय न कर सके. राक्षस ने दोनों को मार डाला.

दोनों बड़े धर्मात्मा थे इसलिए उन्हें लेने मेरे पार्षद आए और उन्हें अपने साथ बैकुंठ में लेकर गए क्योंकि उन्होंने आजीवन सूर्य की पूजा की थी इसलिए मैं दोनों पर अति प्रसन्न था.

वे दोनों विमान पर चढ़कर बैकुठ लोक में पधारे और मेरे पास दिव्य भोगों का आनंद लेने लगे. (कार्तिक महात्म्य पहला अध्याय संपन्न)
कथा जारी रहेगी. 35 अध्यायों वाली पूरी कथा PRABHU SHARNAM APPS में पढ़ें. उसकी जानकारी नीचे देखें.

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