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व्यासजी ने कहा- मैंने कहा, कलयुग ही श्रेष्ठ है, शूद्र ही साधु हैं और स्त्री ही धन्य हैं. यह बात न तो बहुत गोपनीय है न इतनी गहरी कि आप जैसे विद्वानों की समझ में न आए. फिर भी आप कहते हैं तो कारण बता देता हूं.
जो फल सतयुग में दस वर्ष के जप-तप, पूजा-पाठ और ब्रह्मचर्य पालन से मिलता है वही फल त्रेता में मात्र एक वर्ष और द्वापर में एक महीना जबकि कलियुग में केवल एक दिन में मिल जाता है.
सतयुग में जिस फल के लिए ध्यान, त्रेता में यज्ञ और द्वापर में देवी देवताओं के निमित्त हवन-पूजन करना पडता है, कलियुग में उसके लिए केवल श्रीकृष्ण का नापजप ही पर्याप्त है. कम समय और कम प्रयास में सबसे अधिक पुण्य लाभ के चलते मैंने कलयुग को सबसे श्रेष्ठ कहा.
ब्राह्मणों को जनेऊ कराने के बाद कितने अनुशासन और विधि-विधान का पालन करने के बाद पुण्य प्राप्त होता है. जबकि शूद्र केवल निष्ठा से सेवा दायित्व निभाकर वह पुण्यलाभ अर्जित कर सकते हैं. सब कुछ सहते हुए वे ऐसा करते भी आए हैं इसलिए शूद्र ही साधु हैं.
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