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तपस्विनी स्वयंप्रभा हनुमानजी के बुद्धिमता से पूर्ण वचन सुनकर प्रभावित हो गईं. उन्होंने कहा- हे वानरश्रेष्ठ! आपकी बुद्धिमता अतुलित है. अपने स्वामी का कार्य के प्रति आपका समर्पण और आपके बुद्धिबल को देखते हुए इस बात में कोई संदेह ही नहीं कि आप जिस कार्य के लिए निकले हैं वह अपूर्ण रहे.

वानरवीरों! यद्यपि इस स्थान में आ जाने वाला जीवन भर यहां से बाहर नहीं निकल सकता किन्तु मैं अपने तप के प्रभाव से सब को यहां से बाहर निकाल दूंगी. सभी अपनी आंखें बंद कर लें.

वानर वीरों के आंखें मूंदते ही स्वयंप्रभा ने पलक झपकने भर की देर के बाद उन्हें आंखें खोलने को कहा. सभी गुफा से बाहर आ चुके थे. सामने समुद्र लहरा रहा था.

देवी स्वयंप्रभा बोलीं- इस रामकाज में मेरा भी योगदान हो गया. अब आप सब आगे का मार्ग अपने बुद्धि, बल और विवेक से तय करेंगे, इसका मुझे पूर्ण विश्वास है. आपका कल्याण हो.

वे सभी सागरतट पर उस स्थान पर पहुंच गए जहां वयोवृद्ध गिद्धराज संपाति मरणासन्न स्थिति में पड़े थे. इतना कहकर तपस्विनी स्वयंप्रभा पुनः तप के लिए चली गईं.

जटायु के भाई और सूर्यदेव के सारथी अरूण के पुत्र संपाति की कथा पहले भी सुना चुका हूं. पुनः सुनाऊंगा.

संकलन व संपादनः राजन प्रकाश

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