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हनुमानजी ने स्वयंप्रभा को बताया- श्रीराम अपनी पत्नी सीता और अनुज लक्ष्मण के साथ दण्डकारण्य में निवास कर रहे थे. रावण ने छल से माता सीता हरण कर लिया है और किसी लोक में ले जाकर छुपा दिया है. वह मायावी है इसलिए हम उसे खोज नहीं पा रहे.
श्रीराम ने वानरराज सुग्रीव पर उपकार किया है. हम उनके सेवकगण मित्र हैं और जानकीजी की खोज में निकले हैं. आपने श्रीराम के दूतों की प्राण रक्षा कर बड़ा उपकार किया है. आज्ञा दें कि इसके प्रत्युपकार में हम आपकी क्या सेवा कर सकते हैं.
सर्वज्ञा स्वयंप्रभा मंगलमय वाणी में कहती हैं-हे रामदूत! मैं किसी से कोई अपेक्षा नहीं करती और न कोई मेरे लिए कुछ कर सकता है. आप अपने कार्य पर ध्यान दें.
यह सुनकर हनुमानजी ने उन्हें प्रणाम किया और फिर बोले- हे श्रेष्ठ तपस्विनी! हे परम तेजस्विनी देवि! आपकी कृपा से हम प्राण-संकट से तो बच गए पर एक धर्म-संकट में पड़ गए हैं. आपने जिस प्रकार हमारी प्राण रक्षा की वैसे ही हमारी धर्म रक्षा कीजिए.
हमें एक मास के अंदर माता सीता का पता लगाकर वापस पहुंचना है पर एक मास की अवधि बीत चुकी है और हमें किसी भी हालत में जल्दी वापस जाना है. इसके लिए आप हमें इस बिल से बाहर पहुंचने में सहायता करें.
राजकुमार अंगद हमारे नायक हैं. हमारा प्रण है कि हम मासदिवस में रामकाज पूर्ण करके ही लौटेंगे. हे माता यदि हम यह नहीं कर पाए तो कुमार अंगद पर लांछन लगेगा कि वह संभवतः यह कार्य करना ही नहीं चाहते. संभव है वीर अंगद इस अपमान के कारण अपना प्राणत्याग दें.
जिन दल का नायक ही प्राण त्याग दे उस दल के सदस्य का जीवन किस उपयोग का. इसलिए हे देवी आप इस धर्मसंकट से रक्षा करके प्राणसंकट का निदान करें.
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