देवराज इंद्र का अहंकार बहुत बढ़ गया था. स्वर्ग के स्वामी होने के मद में वह चूर रहते थे. एक बार इंद्रसभा सजी हुई थी. स्वर्ग की अप्सराएं नृत्य से इंद्र का मनोरंजन कर रही थीं.

उस सभा में इंद्र के साथ उनके सभी मंत्रिगण, गन्धर्वराज, किन्नर, समस्त देवता, ग्यारह रूद्र, सात मारुत, बारह आदित्य आदि विराजमान थे.

देवगुरु बृहस्पति वहां पधारे. देवगुरू के सम्मान में सभी देवतागण उठ खड़े हुए और उन्हें प्रणाम किया लेकिन इंद्र न तो अपने आसन से उठे और न ही गुरू को प्रणाम किया.

इंद्र के इस व्यवहार से बृहस्पति आश्चर्यचकित थे. उन्हें इंद्र से व्यवहार की अपेक्षा न थी. इंद्र को उन्होंने भूल सुधारने का अवसर भी दिया लेकिन गर्व में चूर इंद्र बैठे ही रहे.

बृहस्पति ने किसी से कुछ भी नहीं कहा और चुपचाप वहां से चले गए. उनके जाने के बाद इंद्र की समझ में आया कि उन्होंने देवगुरु को अपमानित कर दिया है.

इंद्र बृहस्पति से क्षमा मांगने उनके घर गए लेकिन अपमानित देवगुरू कहीं अंतर्ध्यान हो चुके थे. देवताओं के गुरू रुष्ट होकर उनका त्याग कर चुके हैं, यह सूचना असुरों तक पहुंची.

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देत्यगुरू शुक्राचार्य ने असुरों से कहा कि अपने गुरु व संरक्षक से हीन होने के कारण देवता शक्तिहीन हो गए होंगे. इसलिए देवलोक पर आक्रमण करने का यह अच्छा अवसर है.

असुरों ने स्वर्ग पर चढ़ाई कर दी और देवताओं को स्वर्ग से खदेड़ दिया. देवता ब्रह्मा के पास गए और उनसे संकट से निकलने का उपाय बताने की विनती की.

ब्रह्मा जी ने कहा- गुरुविहीन होने के कारण आप अपनी शक्ति फिर से संगठित नहीं कर पाएंगे. इंद्र ने अपने अभिमान में बृहस्पति को खो दिया है. गुरू को मनाकर ले आइए तभी कल्याण होगा.

इंद्र ने बताया कि देवगुरू से क्षमा मांगने गए थे लेकिन अपनी शक्तियों से वह ऐसी जगह चले गए हैं जहां का पता लगाना हमारे बस का भी नहीं है.

बहुत खोजने पर भी बृहस्पति का पता नहीं चला है. उन्होंने ब्रह्माजी से इस संकट से उबारने की बार-बार विनती की. ब्रह्मा ने कोई नया देवगुरू नियुक्त करने का सुझाव दिया.

ब्रह्मा ने कहा- मेरी दृष्टि में त्वष्ठा के पुत्र विश्वरूप ही ऐसे हैं जो देवगुरू होने का सामर्थ्य रखते हैं. आप सब उनकी ही शरण में जाइए और उन्हें देवगुरू बनने को राजी करें.

ब्रह्मा ने साथ ही देवताओं को विश्वरूप के प्रति आगाह भी किया. विश्वरूप गुरू योग्य तो हैं किन्तु एक असुर होने के नाते उनका झुकाव असुरों के प्रति रहेगा. आपको यह सहन करना होगा.

इंद्र के नेतृत्व में देवगण विश्वरूप जी के पास गए. उनसे अपना गुरु बनने के लिए प्रार्थना की.

इंद्र ने कहा- उम्र में हमसे कम होते हुए भी आप ज्ञान में हमसे बहुत आगे हैं. हम आपसे देवगुरु बनने की विनती करते हैं. विश्वरूप ने इंद्र की विनती स्वीकार कर ली.

विश्वरूप ने इंद्र को नारायण कवच के रूप में ॐ नमो नारायणाय का मंत्र दिया. नारायण कवच से इंद्र युद्ध में सुरक्षित रहे और देवताओं ने फिर से विजयी होकर स्वर्ग प्राप्त कर लिया.

विश्वरूप के तीन सिर और तीन मुख थे. एक मुख से वह देवों के समान सोमरस पीते थे तो दूसरे से असुर समान मदिरा और तीसरे से मानव समान अन्न खाते थे.

विश्वरूप के जन्म असुर कन्या एवं आदित्य के पुत्र से हुआ था. इसलिए असुरों के प्रति उनका प्रेम भी स्वाभाविक था.

विश्वरूप देवगुरू के रूप में देवताओं के लिए उच्चस्वर में मंत्रोच्चार करते हवन डालते थे किंतु गुप्त रूप में असुरों के लिए भी यज्ञ का भाग दे देते थे.

एक यज्ञ में विश्वरूप को इंद्र ने असुरों के लिए हविष चढ़ाते देखा तो क्रोध में आपा खो बैठे. इंद्र भूल गए कि ब्रह्मा ने उन्हें विश्वरूप के असुर प्रेम पर संयम रखने को कहा था.

क्रोधित इंद्र ने विश्वरूप के सर काट दिए. इंद्र को ब्रह्महत्या का पाप लगा. देवराज होने के कारण इंद्र के पास यह पाप अस्वीकार करने की शक्ति थी लेकिन उन्होंने शाप स्वीकार किया.

विश्वरूप की हत्या से उनके पिता त्वष्टा बड़े क्रोधित हुए. उन्होंने इंद्र को भस्म करने के लिए यज्ञकुंड में हविष डालना शुरू किया. किंतु क्रोधित त्वष्टा से मंत्र उच्चारण में चूक हो गई.

इसका परिणाम यह हुआ कि वृतासुर नामक एक अत्यंत शक्तिशाली और भयानक असुर पैदा हो गया.

त्वष्टा ने देवराज का अंत करने के लिए आह्वान किया था. इसलिए उसके परिणाम स्वरूप जन्मा वृतासुर देवताओं को निगलने लगा. भय से देवता जान बचाकर भागे.

उन्होंने भगवान विष्णु की शरण ली और रक्षा की प्रार्थना की. श्रीहरि ने इंद्र को उसी दधीचि की शरण में जाने को कहा जिसका इंद्र ने पहले घोर अपमान किया था.

दधीचि ने इंद्र की प्रार्थना सुनी और देवकल्याण के लिए क्या किया इस प्रसंग की चर्चा कल की भागवत कथा में करेंगे.

संकलन व संपादनः प्रभु शरणम्

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