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इंद्र की कृपा से जो अन्न प्राप्त होता है वह हम उन्हें वापस भेंट कर देते हैं. जो शेष रहता है उसी से हम मनुष्यों को जीवनयापन की अनुमति है. मनुष्य की खेती और प्रयत्नों का फल देने वाले इंद्र ही हैं इसलिए उनकी उपासना जरूरी है.
श्रीकृष्ण बोले- पिताजी हमें अपने कर्म अच्छे रखने चाहिए. कर्म गति देह त्यागने के बाद भी हमारी आत्मा के साथ होती है. जो प्रत्यक्ष हमें जीवन दे रहा है उसकी उपेक्षा करके अप्रत्यक्ष की अर्चना तो अनुचित हैं. हमारे जीवन का आधार गोवर्धन और गोधन हैं. उनकी पूजा होनी चाहिए.
हम न तो किसी बड़े राज्य के स्वामी हैं. हमारे पास तो अपना घर भी नहीं. गोवर्धऩ पर्वत ने आसरा दिया है. हमारे गोधन के लिए भोजन भी गोवर्धन प्रदान करते हैं. इसलिए इंद्र यज्ञ के लिए जो सामग्री जुटाई गई है उससे गोवर्धन और गायों की पूजा करें.
प्रभु को इंद्र का अभिमान तोड़ना था. उनकी ओजस्वी वाणी से सभी सहमत हो गए और इंद्र के लिए यज्ञ के स्थान पर गोवर्धन पूजा की तैयारी शुरू हुई. गोवर्धन महाराज की पूजा हुई. छप्पन भोग, छत्तीस व्यंजन का भोग लगाया गया.
भगवान श्रीकृष्ण गोपों को विश्वास दिलाने के लिए गिरिराज पर्वत के ऊपर दूसरे विशाल रूप में प्रकट हो गये और उनकी सामग्री खाने लगे. यह देख सभी ब्रजवासी बहुत प्रसन्न हो गए.
जब अभिमानी इन्द्र को पता लगा कि ब्रजवासी मेरी पूजा को बंद करके किसी पर्वत को पूज रहे हैं, तो वह बहुत क्रोधित हुए. तिलमिलाकर प्रलय करने वाले मेघों को ब्रज पर मूसलाधार पानी बरसाने की आज्ञा दी.
इन्द्र की से ब्रज मण्डल पर प्रचण्ड गड़गड़ाहट, मूसलाधार बारिश एवं भयंकर आँधी-तूफ़ान चलने लगा. लगता था कि अब ब्रज का विनाश हो जाएगा. ब्रजवासी दुखी और भयभीत थे और श्रीकृष्ण से बताया कि इंद्र को कोप से यह सब हो रहा है.
श्रीकृष्ण ने गोपों से कुटुंबजनों और गोधन के साथ गोवर्धन की शरण में चलने को कहा. उन्होंने हमारी पूजा स्वीकार की है ,वही रक्षा करेंगे. ब्रज मण्डल गोवर्धन के नीचे जमा हुआ तो श्रीकृष्ण ने खेल-खेल में अपने बाएं हाथ की छोटी उंगली पर गोवर्धन को उठा लिया.
श्रीकृष्ण ने अपने सुदर्शन चक्र आदेश दिया कि पर्वत के ऊपर विराजो और सम्पूर्ण जल को सोख लो. इंद्र के आदेश पर सात दिनों तक प्रलय मेघ जल बरसाते रहे. श्रीकृष्ण ने सात दिन तक गिरिराज पर्वत को उठाये रखा.
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