ईश्वर ने माता देवहूति के पुत्र रूप में जन्म लिया. उनका नाम कपिल हुआ. कर्दम को स्मरण था कि उनके पुत्र के रूप में स्वयं भगवान श्रीहरि ने जन्म लिया है.

पुत्रियों के विवाह के बाद उन्होंने नारायण रूपी भगवान कपिल से कहा- अब मैं सभी सांसारिक उत्तरदायित्वों से मुक्त हो चुका हूं. मुझे वन में जाकर तप करने की अनुमति दीजिए.

कर्दम वन में तपस्या के लिए चले गए. पिता के वन चले जाने के बाद भगवान कपिल, माता देवहूति के साथ बिंदु सरोवर तीर्थ में ही रहने लगे.

एक दिन देवहूति को ब्रह्मा को वे बातें याद आईं जो ब्रह्मा ने उन्हें बताया था. ब्रह्मा ने कहा था कि तुम्हारा पुत्र नारायण होगा और तुम्हें जीवन का सत्य पथ दिखाएगा.

देवहूति, कपिल जी से बोलीं- मैं माया के जाल में फंसी असत्य में डूबी रही. सौभाग्य से आप पुत्र रूप में मिले हैं. इस अज्ञानरूपी अंधकार से निकलने का मार्ग बताइए.

प्रभु, मुझे प्रकृति और पुरुष के बारे में समझाइए. मायाजाल से बने इस संसार वृक्ष को काटने में आप मेरी कुल्हाड़ी बनिए ताकि इससे मुक्त होकर मैं अपना जीवन सफल कर सकूं.

माता की बातों से प्रसन्न भगवान कपिल ने कहा- हे माता, मोह बंधन को काटने का एकमात्र साधन है-योग. योगी मोहबंधनों को काट देता है. वह सुख और दुःख के मोह में नहीं पड़ता.

मैं आपको दुर्लभ योग ज्ञान बताता हूं, जो ज्ञान मैंने आपसे पहले उन संतों को दिया था जो आपकी ही तरह संसार का सत्य जानने को उत्सुक थे.

बंधन एवं मुक्ति दोनों के लिए जीव स्वयं उत्तरदायी होता है. जो सत रज और तम, इन तीनों गुणों पर नियंत्रण कर लेता है उसे परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है.

काम, क्रोध, लोभ और मोह “मैं” से जन्म लेते हैं. इस अहम् के बंधन को काट कर सच्ची भक्ति में लगने आत्मज्ञान होता है. आत्मज्ञान प्राप्त होने पर संन्यास का भाव पैदा हो जाता है.

देवहूति ने प्रश्न किया- सच्ची भक्ति कैसे होगी? सत्य का स्वरुप क्या होगा? तब भगवान कपिल ने माता को सत्य का ज्ञान दिया.

जैसे जठराग्नि (भूख की अग्नि) भोजन के टुकड़े कर उसे पचा देती है उसी तरह प्राणी मेरी भक्ति में समाकर मायाजाल को काट देते हैं. जो स्थिर मन के हैं, वे माया से नहीं भटकते और जन्म मृत्यु के चक्र से निकल जाते हैं.

मेरी इच्छा से पवन चलता है, इंद्र वर्षा कराते हैं, अग्नि प्रज्ज्वलित है और काल चक्र चलता है. मुझमे स्थिर बुद्धि वाले ज्ञानी इन सब भयों से मुक्त हो जाते हैं.

माता को संन्यास का लाभ बताने के बाद भगवान कपिल वहां से प्रस्थान कर गए. देवहूति ने पुत्र से प्राप्त ज्ञान के बाद ध्यान लगाया और एक दिन शरीर त्याग दिया.

देवहूति ने पूछा- जैसे पृथ्वी के बिना गंध और जल के बिना रस नहीं हो सकते, वैसे ही माया से अलग जीव कैसे होगा? भगवान ने माता के मन का भ्रम मिटाना जारी रखा.

जीवात्मा संसार पर निर्भर नहीं होता. माया का बंधन तोड़ते ही उसे ज्ञान हो जाता है कि उसका संसार से स्थाई नाता कभी था ही नहीं. मुझे तत्वरूप में जानने वाला फिर से इस संसार के कष्ट भोगने नहीं आता.

हमारे भीतरका आत्मा ही पुरुष है, प्रकृति आत्मा का आवरण है. पुरुष अनादि अनंत है, निर्गुण है. जब समय गतिशील हो तो वह प्रकृति के तीनों गुणों के संतुलन को उत्तेजित करता है और गुणों में असंतुलन आ जाता है.

माता देवहूति को योगज्ञान देने के बाद उनकी आज्ञा लेकर कपिल पूर्वोत्तर को चले गए. देवहूति ने नारायण के बताए मार्ग पर चलकर तपस किया ब्रह्मलीन हुईं.

संकलन व प्रबंधन: प्रभु शरणम्

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